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Saturday, 11 June 2016

सूर्य नमस्कार आसन

संसार में दिखाई देने वाली सभी वस्तुओं का मूल आधार सूर्य ही है। सभी ग्रह और उपग्रह सूर्य की आकर्षण शक्ति के द्वारा ही अपने निश्चित आधार पर घूम रहे हैं। संसार में ऊर्जा का सबसे बड़ा स्रोत सूर्य ही है और इसके द्वारा ही संसार की गतिविधियों का संचालन होता है। सूर्य से निकलने वाली ऊर्जा के कारण ही प्रकृति में परिवर्तन आता है इसलिए योगशास्त्रों में सूर्य नमस्कार आसन का वर्णन किया गया है। सूर्य नमस्कार आसन से मिलने वाले लाभों को विज्ञान भी मानता है। सूर्य नमस्कार आसन के अभ्यास से शरीर में लचीलापन आता है तथा विभिन्न प्रकार के रोगों में लाभ होता है। इसकी 12 स्थितियां होती हैं। सभी स्थिति अपनी पहली स्थिति में आई कमी को दूर करती है। इस आसन में शरीर को विभिन्न रूपों में तानकर और छाती को अदल-बदल कर संकुचित व विस्तरित कर सांस क्रिया की जाती है। इससे शरीर की मांसपेशियों, जोड़ों और रीढ़ की हड्डी में लचीलापन आने के साथ आंतरिक अंगों की मालिश भी होती है। सूर्य नमस्कार आसन की 12 स्थितियों को क्रमबद्ध रूप से करें। सूर्य नमस्कार आसन के साथ कुछ मंत्रों को पढ़ने के लिए भी बताया गया है। इन मंत्रों का अभ्यास करते हुए जाप किया जाता है, जिससे इसका लाभ बढ़ जाता है। सूर्य नमस्कार आसन का अभ्यास ऐसे स्थान पर करें, जहां पूरे शरीर पर सूर्य की रोशनी पड़ सके तथा इस आसन का अभ्यास सूर्य उदय के 1 से 2 घंटे के अंदर तथा सूर्य की तरफ मुंह करके करें।

सूर्य नमस्कार आसन की 12 स्थितियां
सूर्य नमस्कार आसन के लिए पहले सीधे खड़े होकर पीठ, गर्दन और सिर को एक सीध में रखें।

पहली स्थिति
सूर्य नमस्कार आसन के लिए पहले सीधे खड़े होकर पीठ, गर्दन और सिर को एक सीध में रखें। दोनों पैरों को मिलाकर सावधान की स्थिति बनाएं। दोनों हाथों को जोड़कर छाती से सटाकर नमस्कार या प्रार्थना की मुद्रा बना लें। अब पेट को अंदर खींचकर छाती को चौड़ा करें। इस स्थिति में आने के बाद अंदर की वायु को धीरे-धीरे बाहर निकाल दें और कुछ क्षण उसी स्थिति में रहें। इसके बाद स्थिति 2 का अभ्यास करें। अब सांस अंदर खींचते हुए दोनों हाथों को कंधों की सीध में ऊपर उठाएं और जितना पीछे ले जाना सम्भव हो ले जाएं।

दूसरी स्थिति
अब सांस अंदर खींचते हुए दोनों हाथों को कंधों की सीध में ऊपर उठाएं और जितना पीछे ले जाना सम्भव हो ले जाएं। फिर सांस बाहर छोड़ते और अंदर खींचते हुए सीधे खड़े हो जाएं। ध्यान रखें कि कमर व घुटना न मुड़े। इसके बाद 3 स्थिति का अभ्यास करें।

तीसरी स्थिति
सांस को बाहर निकालते हुए शरीर को धीरे-धीरे सामने की ओर झुकाते हुए हाथों की अंगुलियों से पैर के अंगूठे को छुएं। इस क्रिया में हथेलियों और पैर की एड़ियों को बराबर स्थिति में जमीन पर सटाने तथा धीरे-धीरे अभ्यास करते हुए नाक या माथे को घुटनों से लगाने का भी अभ्यास करना चाहिए। यह क्रिया करते समय घुटने सीधे करके रखें। इस क्रिया को करते हुए अंदर भरी हुई वायु को बाहर निकाल दें। इस प्रकार सूर्य नमस्कार के साथ प्राणायाम की क्रिया भी हो जाती है। अब चौथी स्थिति का अभ्यास करें। ध्यान रखें- आसन की दूसरी क्रिया में थोड़ी कठिनाई हो सकती है इसलिए नाक या सिर को घुटनों में सटाने की क्रिया अपनी क्षमता के अनुसार ही करें और धीरे-धीरे अभ्यास करते हुए क्रिया को पूरा करने की कोशिश करें। अब सांस अंदर खींचते हुए दोनों हाथ और बाएं पैर को वैसे ही रखें तथा दाएं पैर को पीछे ले जाएं और घुटने को जमीन से सटाकर रखें।

चौथी स्थिति
अब सांस अंदर खींचते हुए दोनों हाथ और बाएं पैर को वैसे ही रखें तथा दाएं पैर को पीछे ले जाएं और घुटने को जमीन से सटाकर रखें। बाएं पैर को दोनो हाथों के बीच में रखें। चेहरे को ऊपर की ओर करके रखें तथा सांस को रोककर ही कुछ देर तक इस स्थिति में रहें। फिर सांस छोड़ते हुए पैर की स्थिति बदल कर दाएं पैर को दोनो हाथों के बीच में रखें और बाएं पैर को पीछे की ओर करके रखें। अब सांस को रोककर ही इस स्थिति में कुछ देर तक रहें। फिर सांस को छोड़े। इसके बाद पांचवीं स्थिति का अभ्यास करें। अब सांस को अंदर खींचकर और रोककर दोनों पैरों को पीछे की ओर ले जाएं। इसमें शरीर को दोनो हाथ व पंजों पर स्थित करें।

पांचवीं स्थिति
अब सांस को अंदर खींचकर और रोककर दोनों पैरों को पीछे की ओर ले जाएं। इसमें शरीर को दोनो हाथ व पंजों पर स्थित करें। इस स्थिति में सिर, पीठ व पैरों को एक सीध में रखें। अब सांस बाहर की ओर छोड़ें। इसके बाद छठी स्थिति का अभ्यास करें। अब सांस को अंदर ही रोककर रखें तथा हाथ, एड़ियों व पंजों को अपने स्थान पर ही रखें। अब धीरे-धीरे शरीर को नीचे झुकाते हुए छाती और मस्तक को जमीन पर स्पर्श कराना चाहिए
छठी स्थिति
अब सांस को अंदर ही रोककर रखें तथा हाथ, एड़ियों व पंजों को अपने स्थान पर ही रखें। अब धीरे-धीरे शरीर को नीचे झुकाते हुए छाती और मस्तक को जमीन पर स्पर्श कराना चाहिए और अंदर रुकी हुई वायु को बाहर निकाल दें। इसके बाद सातवीं स्थिति का अभ्यास करें। फिर सांस अंदर खींचते हुए वायु को अंदर भर लें और सांस को अंदर ही रोककर छाती और सिर को ऊपर उठाकर हल्के से पीछे की ओर ले जाएं।

सातवीं स्थिति
फिर सांस अंदर खींचते हुए वायु को अंदर भर लें और सांस को अंदर ही रोककर छाती और सिर को ऊपर उठाकर हल्के से पीछे की ओर ले जाएं और ऊपर देखने की कोशिश करें। इस क्रिया में सांस रुकी हुई ही रहनी चाहिए। इसके बाद आठवीं स्थिति का अभ्यास करें। अब सांस को बाहर छोड़ते हुए आसन में नितम्ब (हिप्स) और पीठ को ऊपर की ओर ले जाकर छाती और सिर को झुकाते हुए दोनों हाथों के बीच में ले आएं।

आठवीं स्थिति
अब सांस को बाहर छोड़ते हुए आसन में नितम्ब (हिप्स) और पीठ को ऊपर की ओर ले जाकर छाती और सिर को झुकाते हुए दोनों हाथों के बीच में ले आएं। आपके दोनों पैर नितंबों की सीध में होने चाहिए। ठोड़ी को छाती से छूने की कोशिश करें और पेट को जितना सम्भव हो अंदर खींचकर रखें। यह क्रिया करते समय सांस को बाहर निकाल दें। यह भी एक प्रकार का प्राणायाम ही है। इसके बाद नौवीं स्थिति का अभ्यास करें। इस आसन को करते समय पुन: वायु को अंदर खींचें और शरीर को तीसरी स्थिति में ले आएं। इस स्थिति में आने के बाद सांस को रोककर रखें।

नौवीं स्थिति
इस आसन को करते समय पुन: वायु को अंदर खींचें और शरीर को तीसरी स्थिति में ले आएं। इस स्थिति में आने के बाद सांस को रोककर रखें। अब दोनों पैरों को दोनों हाथों के बीच में ले आएं और सिर को आकाश की ओर करके रखें। इसके बाद दसवीं स्थिति का अभ्यास करें। इसमें सांस को बाहर छोड़ते हुए अपने शरीर को दूसरी स्थिति की तरह बनाएं। आपकी दोनो हथेलियां दोनो पैरों के अंगूठे को छूती हुई होनी चाहिए।

दसवीं स्थिति
इसमें सांस को बाहर छोड़ते हुए अपने शरीर को दूसरी स्थिति की तरह बनाएं। आपकी दोनो हथेलियां दोनो पैरों के अंगूठे को छूती हुई होनी चाहिए। सिर को घुटनों से सटाकर रखें और अंदर की वायु को बाहर निकाल दें। इसके बाद ग्याहरवीं स्थिति का अभ्यास करें। अब पुन: फेफड़े में वायु को भरकर पहली स्थिति में सीधे खड़े हो जाएं। इस स्थिति में दोनों पैरों को मिलाकर रखें।

ग्याहरवीं स्थिति
अब पुन: फेफड़े में वायु को भरकर पहली स्थिति में सीधे खड़े हो जाएं। इस स्थिति में दोनों पैरों को मिलाकर रखें और पेट को अंदर खींचकर छाती को बाहर निकाल लें। इस तरह इस आसन का कई बार अभ्यास कर सकते हैं। अब सांस बाहर छोड़ते हुए पहली वाली स्थिति की तरह नमस्कार मुद्रा में आ जाएं। शरीर को सीधा व तानकर रखें।

बारहवीं स्थिति
अब सांस बाहर छोड़ते हुए पहली वाली स्थिति की तरह नमस्कार मुद्रा में आ जाएं। शरीर को सीधा व तानकर रखें। इसके बाद दोनों हाथ को दोनों बगल में रखें और पूरे शरीर को आराम दें। इस प्रकार इन 12 क्रियाओं को करने से सूर्य नमस्कार आसन पूर्ण होता है।

सावधानी
सूर्य नमस्कार आसन का अभ्यास हार्निया रोगी को नहीं करना चाहिए। ध्यान- सूर्य नमस्कार आसन का अभ्यास करते हुए अपने ध्यान को विशुद्धि चक्र पर लगाएं।
सूर्य नमस्कार आसन की विभिन्न स्थितियों में रोग में लाभ
सूर्य नमस्कार आसन की 10 स्थितियों से अलग-अलग लाभ प्राप्त होते हैं। 

पहली स्थिति
यह स्थिति पेट, पीठ, छाती, पैर और भुजाओं के लिए लाभकारी होती है।

दूसरी स्थिति
दूसरी स्थिति में हथेलियों, हाथों, गर्दन, पीठ, पेट, आंतों, नितम्ब, पिण्डलियों, घुटनों और पैरों को लाभ मिलता है।

तीसरी स्थिति
तीसरी स्थिति में पैरों व हाथों की तलहथियों, छाती, पीठ और गर्दन को लाभ पहुंचता है।

चौथी स्थिति
चौथी स्थिति में हाथ, पैरों के पंजों और गर्दन पर असर पड़ता है।

पांचवीं स्थिति
पांचवी स्थिति में बाहों और घुटनों पर बल पड़ता है और वह शक्तिशाली बनते हैं।

छठी स्थिति
छठी स्थिति में भुजाओं, गर्दन, पेट, पीठ के स्नायुओं और घुटनों को बल मिलता है।

सातवीं स्थिति
सातवीं स्थिति में हाथों, पैरों के पंजों, नितम्बों (हिप्स), भुजाओं, पिण्डलियों और कमर पर दबाव पड़ता है।

आठवीं स्थिति
आठवीं स्थिति में हथेलियों, हाथों, गर्दन, पीठ, पेट, आंतों, नितम्ब (हिप्स), पिण्डलियों, घुटनों और पैरों पर बल पड़ता है।

नौवीं स्थिति
नौवीं स्थिति में हाथों, पंजों, भुजाओं, घुटनों, गर्दन व पीठ पर बल पड़ता है।

दसवीं स्थिति
दसवीं स्थिति में पीठ, छाती और भुजाओं पर दबाव पड़ता है तथा उस स्थान का स्नायुमण्डल में खिंचाव होता है। परिणामस्वरूप वह अंग शक्तिशाली व मजबूत बनता है।

सूर्य नमस्कार के साथ पढ़े जाने वाले मंत्र
सूर्य नमस्कार आसन में विभिन्न मंत्रों को पढ़ने का नियम बनाया गया है। इन मंत्रों को विभिन्न स्थितियों में पढ़ने से अत्यंत लाभ मिलता है। सूर्य नमस्कार का अभ्यास क्रमबद्ध रूप से करते हुए तथा उसके साथ मंत्र का उच्चारण करते हुए अभ्यास करना चाहिए। 

ऊँ ह्राँ मित्राय नम:।
ऊँ ह्राँ रवये नम:।
ऊँ ह्रूँ सूर्याय नम:।
ऊँ ह्रैं मानवे नम:।
ऊँ ह्रौं खगाय नम:।
ऊँ ह्र: पूष्पो नम:।
ऊँ ह्राँ हिरण्यगर्भाय नम:।
ऊँ ह्री मरीचये नम:।
ऊँ ह्रौं अर्काय नम:।
ऊँ ह्रूँ आदित्याय नम:।
ऊँ ह्र: भास्कराय नम:।
ऊँ ह्रैं सविणे नम:।

ऊँ ह्राँ ह्री मित्ररविभ्याम्:।
ऊँ ह्रू हें सूर्याभानुभ्याम नम:।
ऊँ ह्रौं ह्री खगपूषभ्याम् नम:।
ऊँ ह्रें ह्रीं हिरण्यगर्भमरीचियाम् नम:।
ऊँ ह्रू ह्रू आदित्यसविती्याम्:।
ऊँ ह्रौं ह्रः अर्कभास्कराभ्याम् नम:।
ऊँ ह्राँ ह्रां ह्रूँ ह्रैं मित्ररवि सूर्यभानुष्यो नम:।
ऊँ ह्र ह्रें ह्रौं ह्र: आदित्यसवित्रर्कफारकरेभ्यो नम:।
ऊँ ह्रों ह्रः ह्रां ह्रौं खगपूशहिरिण्यगर्भ मरीचिभ्यो नम:।
ऊँ ह्राँ ह्रों ह्रं ह्रै ह्रौं ह्रः, ऊँ ह्राँ ह्रीं ह्रू ह्रैं ह्रीं ह्रः मित्र रविसूर्यभानुखगपूषहिरण्यग भमरीच्यादिन्यासवित्रक भास्करूभ्यो नम:। 

इन मंत्रों को दो और बार पढ़ें।

ऊँ श्री सवित्रेन सूर्यनारायण नम:।

आसन के अभ्यास से रोग में लाभ:
सूर्य नमस्कार आसन का अभ्यास करने से शरीर स्वस्थ व रोगमुक्त रहता है। इससे चेहरे पर चमक व रौनक रहती है। यह स्नायुमण्डल को शक्तिशाली बनाता है और ऊर्जा केन्द्र को ऊर्जावान बनाता है। इसके अभ्यास से मानसिक शांति व बुद्धि का विकास होता है तथा स्मरण शक्ति बढ़ती है। इस आसन को करने से शरीर में लचीलापन आता है तथा यह अन्य आसनों के अभ्यास में लाभकारी होता है। इससे सांस से सम्बंधित रोग, मोटापा, रीढ़ की हड्डी और जोड़ो का दर्द दूर होता है। इस आसन को करने से आमाशय, जिगर, गुर्दे तथा छोटी व बड़ी आंतों को बल मिलता है और इसके अभ्यास से कब्ज, बवासीर आदि रोग समाप्त होते हैं।

झूलन-ढुलकन आसन

झूलन-ढुलन आसन! आपने इस आसन का नाम कम ही सुना होगा। हालांकि बालपन में आपने यह आसन जरूर किया होगा। शरीर का आधार रीढ़ होता है। रीढ़ को मजबूत बनाने के लिए यह आसन बहुत अच्छा है। झूलन-लुढ़कन आसन को करने से रीढ़ की हड्डी और जोड़ पहले से ज्यादा लचकदार और मजबूत होते हैं।

झूलना-लुढ़कना आसन की विधि
(अ)
* सबसे पहले पीठ के बल सीधा लेट जाएं।
* अब दोनों पैरों को मोड़ते हुए वक्ष तक लाएं
* दोनों हाथों की अंगुलियों को आपस में फंसाकर घुटनों के पास पैरों को कसकर पकड़ें।
-यह प्रारंभिक स्थिति है।
(ब)
* अब शरीर को क्रमश: दाहिनी और बाईं ओर लुढ़काते हुए पैर के बगल के हिस्से को जमीन से स्पर्श कराएं।
* 5 से 10 बार यह अभ्यास करें।
* पूरे अभ्यास के समय श्वास-प्रश्वास को सामान्य रखें।
(स)
* नितम्बों को जमीन से थोड़ा ऊपर रखते हुए उकडूं बैठें।
* दोनों हाथों की अंगुलियों को आपस में फंसाकर घुटनों के ठीक नीचे पैरों को कसकर पकड़ें।
* संपूर्ण शरीर को मेरूदंड पर आगे‌-पीछे लुढ़काएं।
* अब आगे की ओर लुढ़कते समय पांवों पर बैठने की स्थिति में आने का प्रयत्न करें।
* 5 से 10 बार आगे-पीछे लुढ़कें।

फिर से (पुनश्च:)
इस आसन को करने के लिए लेट जाएं। दोनों पैरों को घुटनों से मोड़ लें। अब घुटनों को छाती की ओर ले जाएं और अपने हाथों से पैरों को घुटनों के पास से पकड़ लें। फिर श्वास भरें और आगे की ओर झूलते हुए श्वास छोड़ें। अब पीछे की ओर लुढ़कते हुए श्वास भरें। इस आसन को करने के दौरान सिर को बचाकर रखें। इस आसन को करते समय कोशिश करें कि आगे की ओर झूलते हुए आप पैरों के बल बैठ जाएं। इस प्रक्रिया को करने से पीठ के बल आगे-पीछे लुढ़कते-झूलते हुए रीढ़ के सभी जोड़ों का व्यायाम हो जाता।

सावधानी
इस आसन को करते समय रीढ़ को ज्यादा सुरक्षा देने के लिए मोटा कंबल बिछाएं। जिन लोगों को पहले से कमर या पीठ में दर्द की शिकायत हो उन्हें इस आसन से परहेज करना चाहिए।

आसन का लाभ
यह आसन नियमित करने से पीठ, नितम्ब और कटि-प्रदेश की मालिश करता है और पीठ, कमर, नितंब की चर्बी को कम करता है।

मत्स्यासन


मत्स्य का अर्थ है- मछली। इस आसन में शरीर का आकार मछली जैसा बनता है, अत: यह मत्स्यासन कहलाता है। यह आसन छाती को चौड़ा कर उसे स्वस्थ बनाए रखने में सक्षम है।
सावधानी
छाती व गले में अत्यधिक दर्द या अन्य कोई रोग होने की स्थिति में यह आसन न करें। बड़ी सावधानी से यह आसन करना चाहिए, शीघ्रता से गर्दन में मोच आ जाने का भय रहता है, क्योंकि धड़ को बिल्कुल ऊपर कर देना होता है। 
यह आसन एक मिनट से दो मिनट तक किया जा सकता है।
इसके लाभ
इससे आंखों की रोशनी बढ़ती है। गला साफ रहता है तथा छाती और पेट के रोग दूर होते हैं। रक्ताभिसरण की गति बढ़ती है, जिससे चर्म रोग नहीं होता। दमे के रोगियों को इससे लाभ मिलता है। पेट की चर्बी घटती है। खांसी दूर होती है।

चक्रासन

चक्र (chakrasana yoga or Wheel Posture) का अर्थ है पहिया। इस आसन में व्यक्ति की आकृति पहिये के समान नजर आती है इसीलिए इसे चक्रासन कहते हैं। यह आसन भी उर्ध्व धनुरासन के समान माना गया है।
अवधि/दोहराव:
चक्रासन को सुविधानुसार 30 सेकंड से एक मिनट तक किया जा सकता है। इसे दो या तीन बार दोहरा सकते हैं।
चक्रासन की विधि:
सर्वप्रथम शवासन में लेट जाएं। फिर घुटनों को मोड़कर, तलवों को भूमि पर अच्छे से जमाते हुए एड़ियों को नितंबों से लगाएं। कोहनियों को मोड़ते हुए हाथों की हथेलियों को कंधों के पीछे थोड़े अंतर पर रखें। इस स्थिति में कोहनियां और घुटनें ऊपर की ओर रहते हैं। श्वास अंदर भरकर तलवों और हथेलियों के बल पर कमर-पेट और छाती को आकाश की ओर उठाएं और सिर को कमर की ओर ले जाए।
फिर धीरे-धीरे हाथ और पैरों के पंजों को समीप लाने का प्रयास करें, इससे शरीर की चक्र जैसी आकृति बन जाएगी। अब धीरे-धीरे श्वास छोड़ते हुए शरीर को ढीला कर, हाथ-पैरों के पंजों को दूर करते हुए कमर और कंधों को भूमि पर टिका दें। और पुन: शवासन की स्थिति में लौट आएं।
सावधानी:
चक्रासन अन्य योग मुद्राओं की तुलना में अधिक चुनौतीपूर्ण है। यदि आप इस आसन को नहीं कर पा रहे हैं तो जबरदस्ती न करें।
चक्रासन का लाभ:
मेरुदंड को लचिला बनाकर शरीर को वृद्धावस्था से दूर रखता है। शरीर में शक्ति और स्फूर्ति बनी रहती है। यह रीढ़, कंधे, कमर, पीठ, पेट सभी को स्वस्थ बनाए रखकर शक्ति प्रदान करता है। यह हृदय प्रणाली को सुचारू रूप से चलायमान रखता है।

Wednesday, 8 June 2016

पवन मुक्त आसन योग

पवन मुक्त आसन अपने नाम के अनुसार है. इस योग की क्रिया द्वारा शरीर से दूषित वायु को शरीर से मुक्त किया जाता है. पवन मुक्त की क्रिया आसान और सरल है.
कुछ दिनों के अभ्यास से इसे आप आसानी से कर सकते हैं. इस योग के विषय में आइये बात करें.
पवन मुक्त आसन के लाभ – Benefits of Pavanamuktasana Yoga
पवन मुक्त आसन उदर के लिए बहुत ही लाभप्रद है. इस योग से गैसटिक, पेट की खराबी में लाभ मिलता है. पेट की बढ़ी हुई चर्बी के लिए भी यह बहुत ही लाभप्रद है. कमर दर्द, साइटिका, हृदय रोग, गठिया में भी यह आसन लाभकारी होता है. स्त्रियों के लिए गर्भाशय सम्बन्धी रोग में पावन मुक्त आसन काफी फायदेमंद होता है. इस आसन से मेरूदंड और कमर के नीचे के हिस्से में मौजूद तनाव दूर होता है.

पवन मुक्त योग में सावधानियां

जिन लोगों को कमर दर्द की शिकायत हो उन्हें यह आसन नहीं करना चाहिए अगर करना हो तो कुशल प्रशिक्षक की देख रेख में करना चाहिए. जिनके घुटनों में तकलीफ हो उन्हें स्वस्थ होने के बाद ही यह योग करना चाहिए. हार्नियां से प्रभावित लोगों को भी स्वस्थ होने के बाद ही यह योग करना चाहिए. स्त्रियों को मासिक के समय यह योग नहीं करना चाहिए.
पवन मुक्त आसन की विधि – Pavanamuktasana Yoga Technique
  • पवन मुक्त आसन पीठ के बल लेट कर किया जाने वाला आसन है. इस आसन के लिए
  • Step 1 पीठ के बल शवासन की मुद्रा में लेट जाएं.
  • Step 2 धीरे धीरे दोनों घुटनों को मोड़कर तलवों को ज़मीन पर टिकाएं
  • Step 3.दोनों हाथों से दोनों घुटनों को ऊपर से पकड़ें और सांस लेते हुए दोनों पैर के घुटनों को सीने से लगाएं और 10-20 सेकेंड तक सांस रोक कर रखें.
  • Step 4 घुटनों को दोनों हाथों से मुक्त करें फिर सांस छोड़ते हुए पैरों को सीधा करके सामान्य स्थिति में लौट आएं. इस क्रिया को 4-5 बार दुहराएं.

दंडासन योग मुद्रा

बैठकर किये जाने वाले योगों में एक है दंडासन. इस योग से रीढ़ की हड्डी सीधी रहती है. यह सिटिंग पोस्चर के लिए बेहतरीन योग है. योग का अभ्यास करने वालो के लिए इस योग की मु्द्रा कई प्रकार से लाभदायक है.
दंडासन के लाभ (Benefits of Dandasana)
इस योग के अभ्यास से सही ठंग से बैठना का तरीका जान पाते हैं.  इस योग की मुद्रा का नियमित अभ्यास करने से हिप्स और पेडू में मौजूद तनाव दूर होता है और इनमें लचीलापन आता है. इस आसन से कमर मजबूत और सुदृढ़ होता है.
दंडासन अवस्था Dandasana Yoga Posture 
बैठकर किये जाने वाले योग मुद्राओं में दंडासन प्राथमिक अवस्था का योग है.  इस योग की मुद्रा में शरीर के ऊपरी और नीचले हिस्से दोनों का ख्याल रखना होता है.  शरीर का ऊपरी हिस्सा सीधा और तना हुआ रहना चाहिए. इस स्थिति में सामान्य और सहज रहना चाहिए.  शरीर का नीचला हिस्सा ज़मीन से लगा होना चाहिए.  इस स्थिति में शरीर को सीधा रखने के लिए जरूरत के अनुसार जंघाओं पर हाथ रखने के बजाय, आप हाथों को पीछे कमर पर ले जाकर दोनों हाथों की उंगलियों के बीच बंधन बनाकर कमर का सहारा दे सकते हैं. अगर कमर को मोड़ना कठिन हो तो सहारा देने के लिए आप कम्बल को मोड़कर उसपर बैठ सकते है.
योग क्रिया – Dandasana Yoga Step by Step
  • 1.दंडासन में सबसे पहले सीधा तन कर बैठना चाहिए और दोनों पैरों को चहरे के समानान्तर एक दूसरे से सटाकर सीधा रखना चाहिए.
  • 2.हिप्स को ज़मीन की दिशा में थोड़ा दबाकर रखना चाहिए और सिर को सीधा रखना चाहिए.
  • 3 अपने पैरो की उंगलियों को अंदर की ओर मोड़ें और तलवों ये बाहर की ओर धक्का दें.

अश्व संचालन योग

अश्व संचालन योग मुद्रा दो शब्दों से मिलकर बना है.अश्व का अर्थ होता है घोड़ और संचालन का अर्थ है चलाना.इस मुद्रा में जिस प्रकार घोड़े को दौड़ाया जाता है उस मुद्रा में शरीर को रखकर योग का अभ्यास किया जाता है.इस योग का अभ्यास कैसे किया जाना चाहिए.यह हमारे लिए किस प्रकार लाभप्रद है आइये इसे देखें.
अश्व संचालन योग के लाभ – Bbenefits of Ashwa Sanchalana Yoga
अश्व संचालन योग से जंघाओं में स्थित तनाव दूर होता है.यह मुद्रा मेरूदंड को सीधा बनाने रखने के लिए कारगर होता है.यह छाती और हिप्स के लिए अच्छा व्यायाम होता है.इससे श्वसन क्रिया अच्छी रहती है.इस आसन के अभ्यास से जंघाओं और शरीर में लचीलापन आता है जिससे पीछे की ओर झुककर किया जिन योग मुद्राओं का अभ्यास किया जाता है उन्हें अभ्यास करते समय विशेष परेशानी नहीं होती है.इसी प्रकार बैठकर जिन आसनों का अभ्यास किया जाता है उनके लिए भी यह योग बहुत ही लाभकारी होता है.

अश्व संचालन अवस्था
 – Ashwa Sanchalana Yoga Posture and Technique
इस आसन के अभ्यास के समय कमर झुके नहीं इसके लिए मेरूदंड सीधा और लम्बवत रखना चाहिए.अभ्यास के समय श्वसन के साथ धड़ और मेरूदंड ऊपर की ओर हो इसका ख्याल रखना चाहिए और प्रश्वास के साथ कमर नीचे की ओर हो इसका ध्यान रखना चाहिए.इस मुद्रा का अभ्यास करते समय चाहें तो घुटनों के नीचे कम्बल या तौलिया रख सकते हैं इससे आपके घुटने रिलैक्स रहेंगे.

सावधानियां 

जब घुटनों में अथवा हिप्स में किसी प्रकार की परेशानी हो उस समय इस मद्रा का अभ्यास नहीं करना चाहिए.

योग क्रिया
 – Ashwa Sanchalana Yoga Step by Step
  • स्टेप 1 टेबल मुद्रा के समान हथेलियों और घुटनों पर शरीर को स्थापित करें.
  • स्टेप 2 बाएं पैर को आगे बढ़ाएं और दोनों हाथों के बीच पैर को लाएं.
  • स्टेप 3 हथेलियो से ज़मीन को दबाएं.धड़ को ऊपर उठाएं.
  • स्टेप 4 मेरूदंड को सीधा आगे की ओर खींच कर रखें.
  • स्टेप 5 सिर और गर्दन को आगे की ओर मेरूदंड की सीध में रखें.छाती को आगे की ओर झुकाकर नहीं रखें.
  • स्टेप 6 इस मुद्रा में 30 सेकेण्ड से 1 मिनट तक बने रहें.
  • स्टेप 7 दोनों तरफ 5-6 बार इसे दुहराएं.

उष्टासन

उष्टासन यानी उंट के समान मुद्रा. इस आसन का अभ्यास करते समय शरीर की उंट के समान प्रतीत होता है अत: इसे उष्टासन कहते हैं. आइये जानें इस आसन का अभ्यास किस प्रकार किया जाना चाहिए एवं इसके क्या लाभ है.
उष्टासन के लाभ – Benefits of Ustrasana
उष्टासन शरीर के अगले भाग को लचीला एवं मजबूत बनाता है. इस आसन से छाती फैलती है और फेफड़ों की कार्य क्षमता में बढ़ोत्तरी होती है. मेरूदंड एवं पीठ को मजबूत एवं सुदृढ़ बनाये रखने के लिए भी इस आसन का अभ्यास लाभप्रद होता है. जंघाओं में मौजूद तनाव को दूर करने में भी यह आसन सहायक होता है.
उष्टासन अवस्था – Ustrasana Technique
इस आसन में जब आप शरीर को पीछे की ओर खींचते हैं उस समय जंधाओं को ज़मीन के लम्बवत रखने की कोशिश करनी चाहिए. आसन के क्रम में सिर को पीछे झुकाने से गर्दन में तनाव हो सकता है अत: सिर को पीछे की ओर नहीं झुकाना चाहिए. अगर गर्दन में तनाव महसूस हो तो  ठोढ़ी को छाती से लगा सकते हैं. जब आसन से वापस लौट रहे हो उस समय गर्दन को आरामदायक स्थिति में रखते हुए शरीर के ऊपरी भाग को उठाना चाहिए फिर सिर को सीधा करना चाहिए. अभ्यास के क्रम में अगर घुटनों में पीड़ा महसूस हो तो आप घुटनों एवं पैरों के नीचे कम्बल मोड़ कर रख सकते हैं.
सावधानियां
इस आसन का अभ्यास उस स्थिति में नहीं करना चाहिए जबकि आप हर्नियां से पीड़ित हों. गर्दन एवं कंधों में तकलीफ होने पर इस आसन का अभ्यास नहीं करना चाहिए. कमर व घुटनों में पीड़ा होने पर भी इस आसन का अभ्यास नहीं करना चाहिए.
योग क्रिया  – Ustrasana Yoga Step by Step
  • स्टेप 1 घुटनों के बल ज़मीन पर बैठ जाएं. हिप्स को थोड़ा फैलाएं और पैर की उंगलियों को अंदर की ओर मोड़ें.
  • स्टेप 2 हाथों को कमर पर रखें. इस अवस्था में उंगलियां ज़मीन की ओर होनी चाहिए.
  • स्टेप 3 जंघाओं और पेडु को आगे की ओर दबाएं.
  • स्टेप 4 छाती को फुलाकर सांस लें. मेरूदंड को सीधा तान कर रखें.
  • स्टेप 5 कंधों और बांहों को पीछे की ओर ले जाएं.
  • स्टेप 6 छाती को ऊपर उठाएं और शरीर के ऊपरी भाग को पीछे की ओर मोड़ें.
  • स्टेप 7 सिर को सीधा रखें और सामने देखें. गर्दन सीधा तान कर रखें.
  • स्टेप 8 दाएं हाथ को दाएं पैर पर ले जाएं. और हथेलियों को टखनों अथवा ऐड़ियों पर रखें.
  • स्टेप 9 बांए हाथ को से बाएं टखनों अथवा ऐड़ियों को पकड़ें.
  • स्टेप 10 गर्दन को उठाएं और सिर को पीछे झुकाकर छत की ओर देखें.
  • स्टेप 11 इस मुद्रा में 30 सेकेण्ड से 1 मिनट तक बने रहें.
  • स्टेप 12 धीरे धीरे सामान्य स्थिति में लौट आएं.

हलासन

हलासन में शरीर को हल की मुद्रा में रखा जाता है.इस आसन के लिए शरीर का लचीला होना बहुत आवश्यक होता है.इस आसन का अभ्यास किस प्रकार करना चाहिए एवं यह किस प्रकार लाभप्रद होता है आइये इसे देखें.
हलासन के लाभ – Benefits of Halasana
हलासन के नियमित अभ्यास से रीढ़ की हड्डियां लचीली रहती है.वृद्धावस्था में हड्डियों से सम्बन्धित कई प्रकार की परेशानियों से बचने के लिए भी यह आसन बहुत ही उपयुक्त होता है.यह आसन पेट सम्बन्धी रोग, थायराइड, दमा, कफ एवं रक्त सम्बन्धी रोगों के लिए बहुत ही लाभकारी होता है.तंत्रिका तंत्र एवं लीवर से सम्बन्धित परेशानियों में भी यह आसन कारगर होता है.मानसिक क्षमताओं को बढ़ाने के लिए भी यह आसन बहुत ही उत्तम होता है.
हलासन अवस्था  – Halasana Technique
हलासन का अभ्यास करते समय सिर को मेरूदंड की सीध में रखना चाहिए.आसन के क्रम में जंघाओं से तनाव को कम करने के लिए आप चाहें तो जितना आराम पूर्वक पैरों को फैला सकते हों दोनों तरफ फैलाएं.हलासन के पश्चात रिलैक्स के लिए मत्स्य आसन का अभ्यास करना चाहिए.
सावधानी
इस आसन का अभ्यास उस समय नहीं करना चाहिए जबकि आपकी गर्दन और कंधो में किसी प्रकार की परेशानी हो.हृदय रोग एवं रक्तचाप सम्बन्धी परेशानियों में भी इस आसन का अभ्यास नहीं करना चाहिए.रजोधर्म के समय स्त्रियों को इस आसन का अभ्यास नहीं करना चाहिए.
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योग क्रिया  – How to do Halasana Step by Step
  • स्टेप 1 पीठ के बल भूमि पर लेट जाएं.
  • स्टेप 2 पैरों को मोड़ें और पैर की उंगलियों को सिर के पीछे ज़मीन से टिकाएं.
  • स्टेप 3 पैरों को सीधा करते हुए ऐड़ियों को शरीर से दूर ले जाने की कोशिश करें.
  • स्टेप 4 बांहों को ज़मीन पर टिकाए रखें.हथेलियां ज़मीन की दिशा में रहनी चाहिए.
  • स्टेप 5 इस मुद्रा में 30 सेकेण्ड से 2 मिनट तक बने रहें.
  • स्टेप 6 कमर पर हाथ को रखें और धीरे धीरे वापस सामान्य स्थिति में लौट आएं.
विधि
पहले पीठ के बल भूमि पर लेट जाएँ.एड़ी-पंजे मिला लें.हाथों की हथेलियों को भूमि पर रखकर कोहनियों को कमर से सटाए रखें.अब श्वास को सुविधानुसार बाहर निकाल दें.फिर दोनों पैरों को एक-दूसरे से सटाते हुए पहले 60 फिर 90 डिग्री के कोण तक एक साथ धीरे-धीरे भूमि से ऊपर उठाते जाएँ।
घुटना सीधा रखते हुए पैर पूरे ऊपर 90 डिग्री के कोण में आकाश की ओर उठाएँ.फिर हथेलियों को भूमि पर दबाते हुए हथेलियों के सहारे पैरों को पीछे सिर की ओर झुकाते हुए पंजों को भूमि पर रख दें.अब दोनों हाथों के पंजों की संधि कर सिर से लगाए.फिर सिर को हथेलियों से थोड़-सा दबाएँ, जिससे आपके पैर और पीछे की ओर जाएँ।
इसे अपनी सुविधानुसार जितने समय तक रख सकते हैं रखें, फिर धीरे-धीरे इस स्थिति की अवधि को दो से पाँच मिनट तक बढ़ाएँ।

सर्वांगासन और अर्ध सर्वांगासन योग

सर्वांगसन दो प्रकार के होते हैं सर्वांगासन और अर्धसर्वांगासन.इस आसन में भूमि पर पीठ के बल लेटकर शरीर को ऊपर उठाया जाता है अत: इसे सर्वांगासन के नाम से जाना जाता है.
सर्वांगासन के लाभ – Benefits of Sarvangasana Yoga
सर्वांगासन के अभ्यास से पाचनतंत्र दुरूस्त रहता है.भूख बढ़ती है और स्वास्थ्य अच्छी रहती है.सर्वांगासन से बौद्धिक क्षमता बढ़ती है.बालों को गिरना और जल्दी सफेद होना कम होता है.त्वचा जल्दी ढ़ीली नहीं होती है.यह आसन नेत्र और मस्तिष्क के रोगों में भी कारगर होता है.इस आसन से शरीर के सभी अंग पुष्ट होते हैं.यह थायराइड ग्रंथि और मेरूदंड पर सकारात्मक प्रभाव डालता है.थायराईड ग्रंथि के सुचारू पर्वक कार्य करने से शरीर का तापमान और उपापचय क्रिया संतुलित होता है.
सर्वांगासन अवस्था – Sarvangasana Yoga Posture and Technique
इस आसन का अभ्यास करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि सिर सीधा रहे.आसन के क्रम में सिर को घूमाना नहीं चाहिए.पैरों को एक साथ और रिलैक्स रखना चाहिए.आसन करते समय अगर पैरों में कष्ट या परेशानी महसूस हो तो वापस सामान्य स्थिति में लौटकर फिर से आसन का अभ्यास करना चाहिए.अगर इस आसन में आपको बहुत अधिक कठिनाई महसूस हो रही है तो आप इसके बदले अर्धसर्वांगासन, विपरीत करनी योग मुद्रा का अभ्यास कर सकते हैं.इन आसनों के अभ्यास से शरीर लचीला होने लगेगा जिससे कुछ दिनो के बाद आप सर्वांगसन का अभ्यास आपके लिए अधिक कठिन नहीं होगा.
सावधानी
रक्तचाप एवं हृदयरोग से पीड़ित लोगों को इस आसन का अभ्यास नहीं करना चाहिए.स्त्रियों को मासिक के समय इस आसन का अभ्यास नहीं करना चाहिए.गर्दन अथवा कंधों में कष्ट होने पर भी इस आसन का अभ्यास करना ठीक नहीं होता.
योग क्रिया – Sarvangasana Yoga Step by Step
  • स्टेप 1 पीठ के बल लेट जाएं.पैर शरीर से दूर और एक साथ होने चाहिए.
  • स्टेप 2 बांहें शरीर के दोनों तरफ और हथेलियां ज़मीन की दिशा में होनी चाहिए.
  • स्टेप 3 हथेलियों से जमीन को दबाएं और दोनों पैरो को छत की सीधा में सीधा उठाएं.
  • स्टेप 4 हिप्स और कमर को ज़मीन से ऊपर उठाएं.
  • स्टेप 5 कोहनी को मोड़ें और हाथों को कमर पर रखें.
  • स्टेप 6 शरीर को सहारा देने के लिए कोहनी और बांहों से ज़मीन को दबाए रखें.
  • स्टेप 7 कोहनियो को जहां तक संभव हो एक दूसरे के करीब लाने की कोशिश करें.
  • स्टेप 8 हाथों से शरीर को सहारा देकर ऊपर उठाने की कोशिश करें.
  • स्टेप 9 जहां तक संभव हो पीठ को सीधा रखें.
  • स्टेप 10 इस मुद्रा में 30 सेकेण्ड से 3 मिनट तक बने रहें.
  • स्टेप 11 धीरे धीरे सामान्य स्थिति में लौट आएं.

अर्ध सर्वांगसन Ardha Sarvangasana Yoga

सर्वांगसन की एक दूसरी मुद्रा है अर्धसर्वांगसन.जिन लोगों को सर्वांगसन का अभ्यास कठिन महसूस होता है वे इस आसन का अभ्यास कर सकते हैं.इस आसन के अभ्यास से शरीर लचीला होता है जिससे सर्वांगासन में कठिनाई नहीं आती है.इस आसन का अभ्यास किस प्रकार करना चाहिए एवं इसके क्या लाभ हैं आइये इसे देखते हैं.
अर्ध सर्वांगसन के लाभ – Benefits of Ardha Sarvangasana Yoga
इस आसन से गर्दन और कंधों का व्यायाम होता है जो रक्त संचार को सुचारू बनाने में कारगर होता है.इस आसन का अभ्यास अनिद्रा एवं निराशात्मक विचारों को दूर करने में भी सहायक होता है.अर्ध सर्वांगासन से मनसिक शांति और मेधा शक्ति का विकास होता है.
अर्ध सर्वांगासन अवस्था – Ardha Sarvangasana Yoga Posture and Technique
अर्ध सर्वांसान का अभ्यास करते समय अगर कठिनाई महसूस हो रही हो तो शरीर को लचीला बनाने के लिए आपको उन योग मुद्राओं का अभ्यास करना चाहिए जिनसे मेरूदंद, कमर, घुटनों एवं एड़ियों में पर्याप्त लचक पैदा हो सके.विपरीत करनी आसन इस संदर्भ में उपयुक्त योग मुद्रा है.इस आसन का अभ्यास करते समय पैरों में संतुलन बनाये रखने के लिए विशेष बल का प्रयोग नहीं करना चाहिए.आसन के क्रम में आपको पूरी तरह से रिलैक्स महसूस करना चाहिए.
सावधानियां
इस आसन का अभ्यास उन लोगों को नहीं करना चाहिए जो उच्च रक्त चाप से पीड़ित हैं.गर्दन में कष्ट होने पर इस योग मुद्रा का अभ्यास नहीं करना चाहिए.नेत्र रोग वालों को भी इस योग का अभ्यास नहीं करना चाहिए.अगर अभ्यास करना हो तो किसी विशेषज्ञ की देख रेख में करें.मासिकधर्म के समय महिलाओं को इसका अभ्यास नहीं करना चाहिए.
योग क्रिया – Ardha Sarvangasana Yoga Step by Step
  • स्टेप 1 पीठ के बल लेट जाएं.इस अवस्था में घुटने मुड़े हुए हों और तलवे जमीन पर टिके हुए हों.
  • स्टेप 2 बांहें शरीर के दोनों तरफ हों, और हथेलियां ज़मीन की ओर हों.
  • स्टेप 3 घुटनों को छाती से लगाएं.
  • स्टेप 4 हथेलियों को ज़मीन की ओर दबाएं.
  • स्टेप 5 हिप्स को ज़मीन से उठाएं.
  • स्टेप 6 कोहनी को मोड़ें और हाथों को कमर पर रखें.
  • स्टेप 7 शरीर को सहारा देने के लिए कोहनी और बांहों से ज़मीन को दबाए रखें.
  • स्टेप 8 पैरों को शरीर से 45 डिग्री पर सीधा करके रखें.
  • स्टेप 9 इस मुद्रा में 30 सेकेण्ड से 3 मिनट तक बने रहें.

ध्यान मुद्रा-

ध्यान या 'समाधि मुद्रा हाथों द्वारा बनाई गई ऐसी भाव-भंगिमा है जो ध्यान करने की ऊर्जा, गहन चिंतन शक्ति तथा ऊर्जा के उच्च स्तर तक पहुंचाती है। बाएं हाथ की हथेली पर दाएं हाथ को रखकर जो ध्यान की मुद्रा बनती है उसे 'ध्यान मुद्रा कहते हैं। जिसको भी ध्यान में अधिक समय तक बैठना है उसके लिए यह ध्यान मुद्रा उचित है। भगवान बुद्ध व महावीर की कई मूर्ति आपने इस मुद्रा में देखी होगी। इस मुद्रा में व्यक्ति गहन आध्यात्मिक शांति व शांतचित्त होने की ऊर्जा प्राप्त करता है। बुद्ध की इस मुद्रा में उपलब्ध मूर्ति को ध्यान कक्ष, आपके पूजाघर या फिर घर के केंद्र या अध्ययन कक्ष में लगाया जाना चाहिए। 

ध्यान योग का महत्वपूर्ण तत्व है जो तन, मन और आत्मा के बीच लयात्मक सम्बन्ध बनाता है. ध्यान के द्वारा हमारी उर्जा केन्द्रित होती है. उर्जा केन्द्रित होने से मन और शरीर में शक्ति का संचार होता है एवं आत्मिक बल (inner strength) बढ़ता है.
योग में ध्यान का बहुत ही महत्व है.  ध्यान के द्वारा हमारी उर्जा केन्द्रित होती है.  उर्जा केन्द्रित होने से मन और शरीर में शक्ति का संचार होता है एवं आत्मिक बल (inner strength) बढ़ता है.  ध्यान से वर्तमान को देखने और समझने में मदद मिलती है.  वर्तमान में हमारे सामने जो लक्ष्य है उसे प्राप्त करने की प्रेरण और क्षमता भी ध्यान से प्राप्त होता है. 
योग में ध्यान का महत्व (importance of meditation in Yoga)
ध्यान को योग की आत्मा कहा जाता है.  प्राचीन काल में योगी योग क्रिया द्वारा अपनी उर्जा को संचित कर आत्मिक एवं पारलौकिक ज्ञान और दृष्ट प्राप्त करते थे.  वास्तव में ध्यान योग का महत्वपूर्ण तत्व है जो तन, मन और आत्मा के बीच लयात्मक सम्बन्ध बनाता है और उसे बल प्रदान करता है.  हमारे मन में एक साथ कई विचार चलते रहते हैं.  मन में दौड़ते विचरों से मस्तिष्क में कोलाहल सा उत्पन्न होने लगता है जिससे मानसिक अशांति पैदा होने लगती है.  ध्यान अनावश्यक विचारों को मन से निकालकर शुद्ध और आवश्यक विचारों को मस्तिष्क में जगह देता है.  ध्यान का नियमित अभ्यास करने से आत्मिक शक्ति बढ़ती और मानसिक शांति की अनुभूति होती है.  ध्यान का अभ्यास करते समय शुरू में 5 मिनट भी काफी होता है.  अभ्यास से 20-30 मिनट तक ध्यान लगा सकते हैं. 
ध्यान की तैयारी (Preparing for meditation)
आज की भाग दौड़ भरी जिन्दग़ी में मन को एकाग्र कर पाना और ध्यान लगाना बहुत ही कठिन है.  मेडिटेशन यानी ध्यान की क्रिया शुरू करने से पहले वातावरण को इस क्रिया हेतु तैयार कर लेना चाहिए.  ध्यान की क्रिया उस स्थान पर करना चाहिए जहां शांति हो और मन को भटकाने वाले तत्व मौजूद नहीं हों.  ध्यान के लिए एक निश्चित समय बना लेना चाहिए इससे कुछ दिनों के अभ्यास से यह दैनिक क्रिया में शामिल हो जाता है फलत ध्यान लगाना आसान हो जाता है. 
ध्यान और  आसन का  महत्व (Importance of stance for meditation)
आसन में बैठने का तरीका ध्यान में काफी मायने रखता है.  ध्यान की क्रिया में हमेशा सीधा तन कर बैठना चाहिए.  दोनों पैर एक दूसरे पर क्रास की तरह होना चाहिए और आंखें मूंद कर नेत्र को मस्तिष्क के केन्द्र में स्थापित करना चाहिए.  इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि इस क्रिया में किसी प्रकार का तनाव नहीं हो और आपकी आंखें स्थिर और शांत हों.  यह क्रिया आप भूमि पर आसन बिछाकर कर सकते हैं अथवा पीछे से सहारा देने वाली कुर्सी पर बैठकर भी कर सकते हैं. 
सांस की गति का महत्व (Significance of breathing rate)
योग में सांस की गति को आवश्यक तत्व के रूप में मान्यता दी गई है.  सांस लेने और छोड़ने की क्रिया द्वारा ध्यान को केन्द्रित करने में मदद मिलती है.  ध्यान करते समय जब मन अस्थिर होकर भटक रहा हो उस समय श्वसन क्रिया पर ध्यान केन्द्रित करने से धीरे धीरे मन स्थिर हो जाता है और ध्यान केन्द्रित होने लगता है.  ध्यान करते समय गहरी सांस लेकर धीरे धीरे से सांस छोड़ने की क्रिया से काफी लाभ मिलता है. 
ध्यान और अन्तर्दृष्टि (Meditation and insight)
ध्यान करते समय अगर आप उस स्थान को अपनी अन्तर्दृष्टि से देखने की कोशिश करते हैं जहां जाने की आप इच्छा रखते हैं अथवा जहां आप जा चुके हैं और जिनकी खूबसूरत एहसास आपके मन में बसा हुआ है तो ध्यान आनन्द दायक हो जाता है.  इससे  ध्यान मुद्रा में बैठा आसान होता एवं लम्बे समय तक ध्यान केन्द्रित करने में भी मदद मिलती है.  अपनी अन्तर्दृष्टि से आप मंदिर, बगीचा, फूलों की क्यारियों एवं प्राकृतिक दृष्यों को देख सकते हैं. 

भूमिस्पर्श मुद्रा


इस मुद्रा में पृथ्वी का स्पर्श या आह्वान किया जाता है। इस मुद्रा में हमेशा सीधा हाथ भूमि को स्पर्श करता दिखता है जबकि बायां हाथ गोद में रखा जाता है। बुद्ध की इस मुद्रा के बारे में कहा जाता है कि जब उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई थी तो वे इस मुद्रा में आसीन थे। ये मुद्रा असीम शक्ति और सत्य व ज्ञान प्राप्ति के प्रति बुद्ध के समर्पण का प्रतिनिधित्व करती है। इस ऊर्जा के सहारे ही बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हो पाई थी तथा ज्ञान प्राप्ति के मार्ग में आ रही बाधाओं से संघर्ष करने व अज्ञान के अंधकार से लडऩे में सहायता मिली थी। बुद्ध की इस मुद्रा की प्रतिमा को आप घर के केंद्र, मुख्य द्वार या फिर पूजाघर या किसी पवित्र स्थल पर लगा सकते हैं। 


भय भगाए अभय मुद्रा

downloadजैसा की इसके नाम से ही विदित होता है कि यह अभय प्रदान करती है इसीलिए इसका नाम अभय मुद्रा है। अभय और ज्ञान मुद्रा एक साथ की जा सकती है।
आपने भगवान के चित्रों में उन्हें आशीर्वाद देते हुए देखा ही होगा, वही अभय मुद्रा है। अँगुठे और तर्जनी अँगुली मिलाकर भी अभय मुद्रा की जाती है और आशीर्वाद की मुद्रा भी अभय मुद्रा कही जाती है।
विधि- सर्वप्रथम किसी भी सुखासन में बैठकर अपने दोनों हाथों की हथेलियों को सामने की ओर करते हुए कंधे के पास रखते हैं। ज्ञान मुद्रा करते हुए आँखों को बंद कर गहरी श्वास लें और छोड़ें और शांति तथा निर्भिकता को महसूस करें। यही है अभय मुद्रा। इसे अभय ज्ञान मुद्रा भी कहते हैं।
लाभ- इस मुद्रा का निरंतर अभ्यास करने से मन में किसी भी तरह का भय नहीं रहता। इससे मन में शांति, निश्चिंतता और परोपकार का जन्म होता है। व्यक्ति खुद के भीतर शक्ति और शांति को महसूस करता है।

Saturday, 4 June 2016

पश्चिमोत्तानासन : पाचन शक्ति बढ़ाने वाला आसन

पश्चिम अर्थात पीछे का भाग- पीठ। पीठ में खिंचाव उत्पन्न होता है, इसीलिए इसे पश्चिमोत्तनासन कहते हैं। इस आसन से शरीर की सभी माँसपेशियों पर खिंचाव पड़ता है। पशिच्मोत्तासन आसन को आवश्यक आसनों में से एक माना गया है। शीर्षासन के बाद इसी आसन का महत्वपूर्ण स्थान है। इस आसन से मेरूदंड लचीला बनता है, जिससे कुण्डलिनी जागरण में लाभ होता है। यह आसन आध्यात्मिक दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण है। पशिच्मोत्तासन के द्वारा मेरूदंड लचीला व मजबूत बनता है जिससे बुढ़ापे में भी व्यक्ति तनकर चलता है और उसकी रीढ़ की हड्डी झुकती नहीं है। यह मेरूदंड के सभी विकार जैसे- पीठदर्द, पेट के रोग, यकृत रोग, तिल्ली, आंतों के रोग तथा गुर्दे के रोगों को दूर करता है। इसके अभ्यास से शरीर की चर्बी कम होकर मोटापा दूर होता है तथा मधुमेह का रोग भी ठीक होता है। यह आसन स्त्रियों के लिए भी लाभकारी है। इस योगासन से स्त्रियों के योनिदोश, मासिक धर्म सम्बन्धी विकार तथा प्रदर आदि रोग दूर होते हैं। यह आसन गर्भाशय से सम्बन्धी शरीर के स्नायुजाल को ठीक करता है।


विधि ----
1. जमीन पर चटाई या दरी बिछाकर इस आसन का अभ्यास करें। चटाई पर पीठ के बल लेट जाएं और अपने दोनों पैर को फैलाकर रखें। दोनों पैरों को आपस में परस्पर मिलाकर रखें तथा अपने पूरे शरीर को बिल्कुल सीधा तान कर रखें। 
2. दोनों हाथों को सिर की ओर ऊपर जमीन पर टिकाएं। अपने दोनों हाथों को ऊपर की ओर उठाते हुए एक झटके के साथ कमर के ऊपर के भाग को उठा लें। इसके बाद धीरे-धीरे अपने दोनों हाथों से पैरों के अंगूठों को पकड़ने की कोशिश करें। ऐसा करते समय पैरों तथा हाथों को बिल्कुल सीधा रखें। 
3. अगर आपको लेट कर यह आसन करने में परेशानी हो तो, इस आसान को बैठे बैठे भी किया जा सकता है। यह करते समय अपनी नाक को छूने की कोशिश करें। इस प्रकार यह क्रिया 1 बार पूरी होने के बाद 10 सैकेंड तक आराम करें और पुन: इस क्रिया को दोहराएं इस तरह यह आसन 3 बार ही करें। इस आसन को करते समय सांस सामान्य रूप से ले और छोड़ें। 

लाभ-----
- इस आसन से शरीर की वायु ठीक रूप से काम करती है और आध्यात्मिक उन्नति होती है। 
- जिस व्यक्ति को क्रोध अधिक आता हो उसे यह आसन करना चाहिए। 
- इस से पूरे शरीर में खून का बहाव सही रूप से होता है। जिससे शरीर की कमजोरी दूर होकर शरीर सुदृढ़, स्फूर्तिदायक और हमेशा स्वस्थ रहता है। 
- इस आसन को करने से बौनापन दूर होता है। 
- पेट की चर्बी को कम करता है तथा नितम्बों का मोटापा दूर कर सुडौल बनाता है। 
- यह आसन सफेद बालों को कम करके उन्हे काले व घने बनाता है।
- इसके अभ्यास से गुर्दे की पथरी, बहुमूत्र (जो मुख्य रूप से पैन्क्रियाज के कारण होता है) दूर होता है तथा यह बवासीर आदि रोगों में भी लाभकारी है। 
- यह आसन वीर्य दोष को दूर करता है तथा कब्ज को दूर कर मल को साफ करता है।
- यह आसन साइनस के साथ-साथ अनिद्रा के उपचार में भी फायदेमंद है। साइनसाइटिस के दौरान सिरदर्द से आराम के लिए भी इसका काफी महत्व है।

Monday, 30 May 2016

योग का संपूर्ण ज्ञान

का वर्णन वेदों में, फिर उपनिषदों में और फिर गीता में मिलता है, लेकिन पतंजलि और गुरु गोरखनाथ ने योग के बिखरे हुए ज्ञान को व्यवस्थित रूप से लिपिबद्ध किया। योग हिन्दू धर्म के छह दर्शनों में से एक है। 
ये छह दर्शन हैं- 1.न्याय 2.वैशेषिक 3.मीमांसा 4.सांख्य 5.वेदांत और 6.योग।आओ जानते हैं योग के बारे में वह सब कुछ जो आप जानना चाहते हैं।


*योग के मुख्‍य अंग:- यम, नियम, अंग संचालन, आसन, क्रिया, बंध, मुद्रा, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। इसके अलावा योग के प्रकार,की बाधाएं, योग का इतिहास, योग के प्रमुख ग्रंथ।
योग के प्रकार:- 1.राजयोग, 2.हठयोग, 3.लययोग, 4. ज्ञानयोग, 5.कर्मयोग और 6. भक्तियोग। इसके अलावा बहिरंग योग, नाद योग, मंत्र योग, तंत्र योग, कुंडलिनी योग, साधना योग, क्रिया योग, सहज योग, मुद्रायोग, और स्वरयोग आदि योग के अनेक आयामों की चर्चा की जाती है। लेकिन सभी उक्त छह में समाहित हैं।


1.पांच यम:- 1.अहिंसा, 2.सत्य, 3.अस्तेय, 4.ब्रह्मचर्य और 5.अपरिग्रह।
2.पांच नियम:-1.शौच, 2.संतोष, 3.तप, 4.स्वाध्याय और 5.ईश्वर प्राणिधान।
3.अंग संचालन:- 1.शवासन, 2.मकरासन, 3.दंडासन और 4. नमस्कार मुद्रा में अंग संचालन किया जाता है जिसे सूक्ष्म व्यायाम कहते हैं। इसके अंतर्गत आंखें, कोहनी, घुटने, कमर, अंगुलियां, पंजे, मुंह आदि अंगों की एक्सरसाइज की जाती है।
4.प्रमुख बंध:- 1.महाबंध, 2.मूलबंध, 3.जालन्धरबंध और 4.उड्डियान।
5.प्रमुख आसन:- किसी भी की शुरुआत लेटकर अर्थात शवासन (चित्त लेटकर) और मकरासन (औंधा लेटकर) में और बैठकर अर्थात दंडासन और वज्रासन में, खड़े होकर अर्थात सावधान मुद्रा या नमस्कार मुद्रा से होती है। यहां सभी तरह के आसन के नाम दिए गए हैं।

1.सूर्यनमस्कार, 2.आकर्णधनुष्टंकारासन, 3.उत्कटासन, 4.उत्तान कुक्कुटासन, 5.उत्तानपादासन, 6.उपधानासन, 7.ऊर्ध्वताड़ासन, 8.एकपाद ग्रीवासन, 9.कटि उत्तानासन
10.कन्धरासन, 11.कर्ण पीड़ासन, 12.कुक्कुटासन, 13.कुर्मासन, 14.कोणासन, 15.गरुड़ासन
16.गर्भासन, 17.गोमुखासन, 18.गोरक्षासन, 19.चक्रासन, 20.जानुशिरासन, 21.तोलांगुलासन
22.त्रिकोणासन, 23.दीर्घ नौकासन, 24.द्विचक्रिकासन, 25.द्विपादग्रीवासन, 26.ध्रुवासन
27.नटराजासन, 28.पक्ष्यासन, 29.पर्वतासन, 31.पशुविश्रामासन, 32.पादवृत्तासन
33.पादांगुष्टासन, 33.पादांगुष्ठनासास्पर्शासन, 35.पूर्ण मत्स्येन्द्रासन, 36.पॄष्ठतानासन
37.प्रसृतहस्त वृश्चिकासन, 38.बकासन, 39.बध्दपद्मासन, 40.बालासन, 41.ब्रह्मचर्यासन
42.भूनमनासन, 43.मंडूकासन, 44.मर्कटासन, 45.मार्जारासन, 46.योगनिद्रा, 47.योगमुद्रासन, 48.वातायनासन, 49.वृक्षासन, 50.वृश्चिकासन, 51.शंखासन, 52.शशकासन
53.सिंहासन, 55.सिद्धासन, 56.सुप्त गर्भासन, 57.सेतुबंधासन, 58.स्कंधपादासन,
59.हस्तपादांगुष्ठासन, 60.भद्रासन, 61.शीर्षासन, 62.सूर्य नमस्कार, 63.कटिचक्रासन,
64.पादहस्तासन, 65.अर्धचन्द्रासन, 66.ताड़ासन, 67.पूर्णधनुरासन, 68.अर्धधनुरासन,
69.विपरीत नौकासन, 70.शलभासन, 71.भुजंगासन, 72.मकरासन, 73.पवन मुक्तासन,  
74.नौकासन, 75.हलासन, 76.सर्वांगासन, 77.विपरीतकर्णी आसन, 78.शवासन,  
79.मयूरासन, 80.ब्रह्म मुद्रा, 81.पश्चिमोत्तनासन, 82.उष्ट्रासन, 83.वक्रासन, 84.अर्ध-मत्स्येन्द्रासन, 85.मत्स्यासन, 86.सुप्त-वज्रासन, 87.वज्रासन, 88.पद्मासन आदि।
6.जानिए क्या है:-
प्राणायाम के पंचक:- 1.व्यान, 2.समान, 3.अपान, 4.उदान और 5.प्राण।
प्राणायाम के प्रकार:- 1.पूरक, 2.कुम्भक और 3.रेचक। इसे ही हठयोगी अभ्यांतर वृत्ति, स्तम्भ वृत्ति और बाह्य वृत्ति कहते हैं। अर्थात श्वास को लेना, रोकना और छोड़ना। अंतर रोकने को आंतरिक कुम्भक और बाहर रोकने को बाह्म कुम्भक कहते हैं।
प्रमुख प्राणायाम:- 1.नाड़ीशोधन, 2.भ्रस्त्रिका, 3.उज्जाई, 4.भ्रामरी, 5.कपालभाती, 6.केवली, 7.कुंभक, 8.दीर्घ, 9.शीतकारी, 10.शीतली, 11.मूर्छा, 12.सूर्यभेदन, 13.चंद्रभेदन, 14.प्रणव, 15.अग्निसार, 16.उद्गीथ, 17.नासाग्र, 18.प्लावनी, 19.शितायु आदि।
अन्य प्राणायाम:- 1.अनुलोम-विलोम प्राणायाम, 2.अग्नि प्रदीप्त प्राणायाम, 3.अग्नि प्रसारण प्राणायाम, 4.एकांड स्तम्भ प्राणायाम, 5.सीत्कारी प्राणायाम, 6.सर्वद्वारबद्व प्राणायाम, 7.सर्वांग स्तम्भ प्राणायाम, 8.सम्त व्याहृति प्राणायाम, 9.चतुर्मुखी प्राणायाम, 10.प्रच्छर्दन प्राणायाम, 11.चन्द्रभेदन प्राणायाम, 12.यन्त्रगमन प्राणायाम, 13.वामरेचन प्राणायाम, 14.दक्षिण रेचन प्राणायाम, 15.शक्ति प्रयोग प्राणायाम, 16.त्रिबन्धरेचक प्राणायाम, 17.कपाल भाति प्राणायाम, 18.हृदय स्तम्भ प्राणायाम, 19.मध्य रेचन प्राणायाम, 20.त्रिबन्ध कुम्भक प्राणायाम, 21.ऊर्ध्वमुख भस्त्रिका प्राणायाम, 22.मुखपूरक कुम्भक प्राणायाम, 23.वायुवीय कुम्भक प्राणायाम, 24.वक्षस्थल रेचन प्राणायाम, 25.दीर्घ श्वास-प्रश्वास प्राणायाम, 26.प्राह्याभ्न्वर कुम्भक प्राणायाम, 27.षन्मुखी रेचन प्राणायाम 28.कण्ठ वातउदा पूरक प्राणायाम, 29.सुख प्रसारण पूरक कुम्भक प्राणायाम, 30.नाड़ी शोधन प्राणायाम व नाड़ी अवरोध प्राणायाम आदि।
7.योग क्रियाएं जानिएं:-
प्रमुख 13 क्रियाएं:- 1.नेती- सूत्र नेति, घॄत नेति, 2.धौति- वमन धौति, वस्त्र धौति, दण्ड धौति, 3.गजकरणी, 4.बस्ती- जल बस्ति, 5.कुंजर, 6.न्यौली, 7.त्राटक, 8.कपालभाति, 9.धौंकनी, 10.गणेश क्रिया, 11.बाधी, 12.लघु शंख प्रक्षालन और 13.शंख प्रक्षालयन।
8.मुद्राएं कई हैं:- 
*6 आसन मुद्राएं:- 1.व्रक्त मुद्रा, 2.अश्विनी मुद्रा, 3.महामुद्रा, 4.योग मुद्रा, 5.विपरीत करणी मुद्रा, 6.शोभवनी मुद्रा।
*पंच राजयोग मुद्राएं- 1.चाचरी, 2.खेचरी, 3.भोचरी, 4.अगोचरी, 5.उन्न्युनी मुद्रा।
*10 हस्त मुद्राएं:- उक्त के अलावा हस्त मुद्राओं में प्रमुख दस मुद्राओं का महत्व है जो निम्न है: -1.ज्ञान मुद्रा, 2.पृथवि मुद्रा, 3.वरुण मुद्रा, 4.वायु मुद्रा, 5.शून्य मुद्रा, 6.सूर्य मुद्रा, 7.प्राण मुद्रा, 8.लिंग मुद्रा, 9.अपान मुद्रा, 10.अपान वायु मुद्रा।
*अन्य मुद्राएं : 1.सुरभी मुद्रा, 2.ब्रह्ममुद्रा, 3.अभयमुद्रा, 4.भूमि मुद्रा, 5.भूमि स्पर्शमुद्रा, 6.धर्मचक्रमुद्रा, 7.वज्रमुद्रा, 8.वितर्कमुद्रा, 8.जनाना मुद्रा, 10.कर्णमुद्रा, 11.शरणागतमुद्रा, 12.ध्यान मुद्रा, 13.सुची मुद्रा, 14.ओम मुद्रा, 15.जनाना और चीन मुद्रा, 16.अंगुलियां मुद्रा 17.महात्रिक मुद्रा, 18.कुबेर मुद्रा, 19.चीन मुद्रा, 20.वरद मुद्रा, 21.मकर मुद्रा, 22.शंख मुद्रा, 23.रुद्र मुद्रा, 24.पुष्पपूत मुद्रा, 25.वज्र मुद्रा, 26श्वांस मुद्रा, 27.हास्य बुद्धा मुद्रा, 28.योग मुद्रा, 29.गणेश मुद्रा 30.डॉयनेमिक मुद्रा, 31.मातंगी मुद्रा, 32.गरुड़ मुद्रा, 33.कुंडलिनी मुद्रा, 34.शिव लिंग मुद्रा, 35.ब्रह्मा मुद्रा, 36.मुकुल मुद्रा, 37.महर्षि मुद्रा, 38.योनी मुद्रा, 39.पुशन मुद्रा, 40.कालेश्वर मुद्रा, 41.गूढ़ मुद्रा, 42.मेरुदंड मुद्रा, 43.हाकिनी मुद्रा, 45.कमल मुद्रा, 46.पाचन मुद्रा, 47.विषहरण मुद्रा या निर्विषिकरण मुद्रा, 48.आकाश मुद्रा, 49.हृदय मुद्रा, 50.जाल मुद्रा आदि।
9.प्रत्याहार: इंद्रियों को विषयों से हटाने का नाम ही प्रत्याहार है। इंद्रियां मनुष्य को बाहरी विषयों में उलझाए रखती है।। प्रत्याहार के अभ्यास से साधक अन्तर्मुखिता की स्थिति प्राप्त करता है। जैसे एक कछुआ अपने अंगों को समेट लेता है उसी प्रकार प्रत्याहरी मनुष्य की स्थिति होती है। यम नियम, आसान, प्राणायाम को साधने से प्रत्याहार की स्थिति घटित होने लगती है।
10.धारणा: चित्त को एक स्थान विशेष पर केंद्रित करना ही धारणा है। प्रत्याहार के सधने से धारणा स्वत: ही घटित होती है। धारणा धारण किया हुआ चित्त कैसी भी धारणा या कल्पना करता है, तो वैसे ही घटित होने लगता है। यदि ऐसे व्यक्ति किसी एक कागज को हाथ में लेकर यह सोचे की यह जल जाए तो ऐसा हो जाता है।
11.ध्यान: जब ध्येय वस्तु का चिंतन करते हुए चित्त तद्रूप हो जाता है तो उसे ध्यान कहते हैं। पूर्ण ध्यान की स्थिति में किसी अन्य वस्तु का ज्ञान अथवा उसकी स्मृति चित्त में प्रविष्ट नहीं होती।
ध्यान के रूढ़ प्रकार:- स्थूल ध्यान, ज्योतिर्ध्यान और सूक्ष्म ध्यान।
ध्यान विधियां:- श्वास ध्यान, साक्षी भाव, नासाग्र ध्यान, विपश्यना ध्यान आदि हजारों ध्यान विधियां हैं।
12.समाधि: यह चित्त की अवस्था है जिसमें चित्त ध्येय वस्तु के चिंतन में पूरी तरह लीन हो जाता है। योग दर्शन समाधि के द्वारा ही मोक्ष प्राप्ति को संभव मानता है।
समाधि की भी दो श्रेणियां हैं : 1.सम्प्रज्ञात और 2.असम्प्रज्ञात। सम्प्रज्ञात समाधि वितर्क, विचार, आनंद और अस्मितानुगत होती है। असम्प्रज्ञात में सात्विक, राजस और तामस सभी वृत्तियों का निरोध हो जाता है। इसे बौद्ध धर्म में संबोधि, जैन धर्म में केवल्य और हिन्दू धर्म में मोक्ष प्राप्त करना कहते हैं। इस सामान्य भाषा में मुक्ति कहते हैं।

पुराणों में मुक्ति के 6 प्रकार बताएं गए है जो इस प्रकार हैं- 1.साष्ट्रि, (ऐश्वर्य), 2.सालोक्य (लोक की प्राप्ति), 3.सारूप (ब्रह्मस्वरूप), 4.सामीप्य, (ब्रह्म के पास), 5.साम्य (ब्रह्म जैसी समानता) 6.लीनता या सायुज्य (ब्रह्म में लीन होकर ब्रह्म हो जाना)।
*योगाभ्यास की बाधाएं: आहार, प्रयास, प्रजल्प, नियमाग्रह, जनसंग और लौल्य। इसी को सामान्य भाषा में आहार अर्थात अतिभोजन, प्रयास अर्थात आसनों के साथ जोर-जबरदस्ती, प्रजल्प अर्थात अभ्यास का दिखावा, नियामाग्रह अर्थात योग करने के कड़े नियम बनाना, जनसंग अर्थात अधिक जनसंपर्क और अंत में लौल्य का मतलब शारीरिक और मानसिक चंचलता।
1.राजयोग:- यम, नियम, आसन, प्राणायम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि यह पतंजलि के राजयोग के आठ अंग हैं। इन्हें भी कहा जाता है।
2.हठयोग:- षट्कर्म, आसन, मुद्रा, प्रत्याहार, ध्यान और समाधि- ये के सात अंग है, लेकिन हठयोगी का जोर आसन एवं कुंडलिनी जागृति के लिए आसन, बंध, मुद्रा और प्राणायम पर अधिक रहता है। यही क्रिया योग है।
3.लययोग:- यम, नियम, स्थूल क्रिया, सूक्ष्म क्रिया, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। उक्त आठ लययोग के अंग है।
4.ज्ञानयोग :- साक्षीभाव द्वारा विशुद्ध आत्मा का ज्ञान प्राप्त करना ही ज्ञान योग है। यही ध्यानयोग है।
5.कर्मयोग:- कर्म करना ही कर्म योग है। इसका उद्‍येश्य है कर्मों में कुशलता लाना। यही सहज योग है।
6.भक्तियोग :- भक्त श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन रूप- इन नौ अंगों को नवधा भक्ति कहा जाता है। भक्ति योगानुसार व्यक्ति सालोक्य, सामीप्य, सारूप तथा सायुज्य-मुक्ति को प्राप्त होता है, जिसे क्रमबद्ध मुक्ति कहा जाता है।
*कुंडलिनी योग : कुंडलिनी शक्ति सुषुम्ना नाड़ी में नाभि के निचले हिस्से में सोई हुई अवस्था में रहती है, जो ध्यान के गहराने के साथ ही सभी चक्रों से गुजरती हुई सहस्रार चक्र तक पहुंचती है। ये चक्र 7 होते हैं:- मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा और सहस्रार। 72 हजार नाड़ियों में से प्रमुख रूप से तीन है: इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना। इड़ा और पिंगला नासिका के दोनों छिद्रों से जुड़ी है जबकि सुषुम्ना भ्रकुटी के बीच के स्थान से। स्वरयोग इड़ा और पिंगला के विषय में विस्तृत जानकारी देते हुए स्वरों को परिवर्तित करने, रोग दूर करने, सिद्धि प्राप्त करने और भविष्यवाणी करने जैसी शक्तियाँ प्राप्त करने के विषय में गहन मार्गदर्शन होता है। दोनों नासिका से सांस चलने का अर्थ है कि उस समय सुषुम्ना क्रियाशील है। ध्यान, प्रार्थना, जप, चिंतन और उत्कृष्ट कार्य करने के लिए यही समय सर्वश्रेष्ठ होता है।
योग का संक्षिप्त इतिहास (History of Yoga) : योग का उपदेश सर्वप्रथम हिरण्यगर्भ ब्रह्मा ने सनकादिकों को, पश्चात विवस्वान (सूर्य) को दिया। बाद में यह दो शखाओं में विभक्त हो गया। एक ब्रह्मयोग और दूसरा कर्मयोग। ब्रह्मयोग की परम्परा सनक, सनन्दन, सनातन, कपिल, आसुर‍ि, वोढु और पच्चंशिख नारद-शुकादिकों ने शुरू की थी। यह ब्रह्मयोग लोगों के बीच में ज्ञान, अध्यात्म और सांख्‍य योग नाम से प्रसिद्ध हुआ।
दूसरी कर्मयोग की परम्परा विवस्वान की है। विवस्वान ने मनु को, मनु ने इक्ष्वाकु को, इक्ष्वाकु ने राजर्षियों एवं प्रजाओं को योग का उपदेश दिया। उक्त सभी बातों का वेद और पुराणों में उल्लेख मिलता है। वेद को संसार की प्रथम पुस्तक माना जाता है जिसका उत्पत्ति काल लगभग 10000 वर्ष पूर्व का माना जाता है। पुरातत्ववेत्ताओं अनुसार योग की उत्पत्ति 5000 ई.पू. में हुई। गुरु-शिष्य परम्परा के द्वारा योग का ज्ञान परम्परागत तौर पर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को मिलता रहा।
भारतीय योग जानकारों के अनुसार योग की उत्पत्ति भारत में लगभग 5000 वर्ष से भी अधिक समय पहले हुई थी। योग की सबसे आश्चर्यजनक खोज 1920 के शुरुआत में हुई। 1920 में पुरातत्व वैज्ञानिकों ने 'सिंधु सरस्वती सभ्यता' को खोजा था जिसमें प्राचीन हिंदू धर्म और योग की परंपरा होने के सबूत मिलते हैं। सिंधु घाटी सभ्यता को 3300-1700 बी.सी.ई. पूराना माना जाता है।
योग ग्रंथ (Yoga Sutras Books) : वेद, उपनिषद्, भगवद गीता, हठ योग प्रदीपिका, योग दर्शन, शिव संहिता और विभिन्न तंत्र ग्रंथों में योग विद्या का उल्लेख मिलता है। सभी को आधार बनाकर पतंजलि ने योग सूत्र लिखा। योग पर लिखा गया सर्वप्रथम सुव्यव्यवस्थित ग्रंथ है- योगसूत्र। योगसूत्र को पांतजलि ने 200 ई.पूर्व लिखा था। इस ग्रंथ पर अब तक हजारों भाष्य लिखे गए हैं, लेकिन कुछ खास भाष्यों का यहां उल्लेख लिखते हैं।
व्यास भाष्य: व्यास भाष्य का रचना काल 200-400 ईसा पूर्व का माना जाता है। महर्षि पतंजलि का ग्रंथ योग सूत्र योग की सभी विद्याओं का ठीक-ठीक संग्रह माना जाता है। इसी रचना पर व्यासजी के 'व्यास भाष्य' को योग सूत्र पर लिखा प्रथम प्रामाणिक भाष्य माना जाता है। व्यास द्वारा महर्षि पतंजलि के योग सूत्र पर दी गई विस्तृत लेकिन सुव्यवस्थित व्याख्या।
तत्त्ववैशारदी : पतंजलि योगसूत्र के व्यास भाष्य के प्रामाणिक व्याख्याकार के रूप में वाचस्पति मिश्र का 'तत्त्ववैशारदी' प्रमुख ग्रंथ माना जाता है। वाचस्पति मिश्र ने योगसूत्र एवं व्यास भाष्य दोनों पर ही अपनी व्याख्या दी है। तत्त्ववैशारदी का रचना काल 841 ईसा पश्चात माना जाता है।
योगवार्तिक : विज्ञानभिक्षु का समय विद्वानों के द्वारा 16वीं शताब्दी के मध्य में माना जाता है। योगसूत्र पर महत्वपूर्ण व्याख्या विज्ञानभिक्षु की प्राप्त होती है जिसका नाम ‘योगवार्तिक’ है। 
भोजवृत्ति : भोज के राज्य का समय 1075-1110 विक्रम संवत माना जाता है। धरेश्वर भोज के नाम से प्रसिद्ध व्यक्ति ने योग सूत्र पर जो 'भोजवृत्ति नामक ग्रंथ लिखा है वह भोजवृत्ति योगविद्वजनों के बीच समादरणीय एवं प्रसिद्ध माना जाता है। कुछ इतिहासकार इसे 16वीं सदी का ग्रंथ मानते हैं।