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Monday, 30 May 2016

योग का संपूर्ण ज्ञान

का वर्णन वेदों में, फिर उपनिषदों में और फिर गीता में मिलता है, लेकिन पतंजलि और गुरु गोरखनाथ ने योग के बिखरे हुए ज्ञान को व्यवस्थित रूप से लिपिबद्ध किया। योग हिन्दू धर्म के छह दर्शनों में से एक है। 
ये छह दर्शन हैं- 1.न्याय 2.वैशेषिक 3.मीमांसा 4.सांख्य 5.वेदांत और 6.योग।आओ जानते हैं योग के बारे में वह सब कुछ जो आप जानना चाहते हैं।


*योग के मुख्‍य अंग:- यम, नियम, अंग संचालन, आसन, क्रिया, बंध, मुद्रा, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। इसके अलावा योग के प्रकार,की बाधाएं, योग का इतिहास, योग के प्रमुख ग्रंथ।
योग के प्रकार:- 1.राजयोग, 2.हठयोग, 3.लययोग, 4. ज्ञानयोग, 5.कर्मयोग और 6. भक्तियोग। इसके अलावा बहिरंग योग, नाद योग, मंत्र योग, तंत्र योग, कुंडलिनी योग, साधना योग, क्रिया योग, सहज योग, मुद्रायोग, और स्वरयोग आदि योग के अनेक आयामों की चर्चा की जाती है। लेकिन सभी उक्त छह में समाहित हैं।


1.पांच यम:- 1.अहिंसा, 2.सत्य, 3.अस्तेय, 4.ब्रह्मचर्य और 5.अपरिग्रह।
2.पांच नियम:-1.शौच, 2.संतोष, 3.तप, 4.स्वाध्याय और 5.ईश्वर प्राणिधान।
3.अंग संचालन:- 1.शवासन, 2.मकरासन, 3.दंडासन और 4. नमस्कार मुद्रा में अंग संचालन किया जाता है जिसे सूक्ष्म व्यायाम कहते हैं। इसके अंतर्गत आंखें, कोहनी, घुटने, कमर, अंगुलियां, पंजे, मुंह आदि अंगों की एक्सरसाइज की जाती है।
4.प्रमुख बंध:- 1.महाबंध, 2.मूलबंध, 3.जालन्धरबंध और 4.उड्डियान।
5.प्रमुख आसन:- किसी भी की शुरुआत लेटकर अर्थात शवासन (चित्त लेटकर) और मकरासन (औंधा लेटकर) में और बैठकर अर्थात दंडासन और वज्रासन में, खड़े होकर अर्थात सावधान मुद्रा या नमस्कार मुद्रा से होती है। यहां सभी तरह के आसन के नाम दिए गए हैं।

1.सूर्यनमस्कार, 2.आकर्णधनुष्टंकारासन, 3.उत्कटासन, 4.उत्तान कुक्कुटासन, 5.उत्तानपादासन, 6.उपधानासन, 7.ऊर्ध्वताड़ासन, 8.एकपाद ग्रीवासन, 9.कटि उत्तानासन
10.कन्धरासन, 11.कर्ण पीड़ासन, 12.कुक्कुटासन, 13.कुर्मासन, 14.कोणासन, 15.गरुड़ासन
16.गर्भासन, 17.गोमुखासन, 18.गोरक्षासन, 19.चक्रासन, 20.जानुशिरासन, 21.तोलांगुलासन
22.त्रिकोणासन, 23.दीर्घ नौकासन, 24.द्विचक्रिकासन, 25.द्विपादग्रीवासन, 26.ध्रुवासन
27.नटराजासन, 28.पक्ष्यासन, 29.पर्वतासन, 31.पशुविश्रामासन, 32.पादवृत्तासन
33.पादांगुष्टासन, 33.पादांगुष्ठनासास्पर्शासन, 35.पूर्ण मत्स्येन्द्रासन, 36.पॄष्ठतानासन
37.प्रसृतहस्त वृश्चिकासन, 38.बकासन, 39.बध्दपद्मासन, 40.बालासन, 41.ब्रह्मचर्यासन
42.भूनमनासन, 43.मंडूकासन, 44.मर्कटासन, 45.मार्जारासन, 46.योगनिद्रा, 47.योगमुद्रासन, 48.वातायनासन, 49.वृक्षासन, 50.वृश्चिकासन, 51.शंखासन, 52.शशकासन
53.सिंहासन, 55.सिद्धासन, 56.सुप्त गर्भासन, 57.सेतुबंधासन, 58.स्कंधपादासन,
59.हस्तपादांगुष्ठासन, 60.भद्रासन, 61.शीर्षासन, 62.सूर्य नमस्कार, 63.कटिचक्रासन,
64.पादहस्तासन, 65.अर्धचन्द्रासन, 66.ताड़ासन, 67.पूर्णधनुरासन, 68.अर्धधनुरासन,
69.विपरीत नौकासन, 70.शलभासन, 71.भुजंगासन, 72.मकरासन, 73.पवन मुक्तासन,  
74.नौकासन, 75.हलासन, 76.सर्वांगासन, 77.विपरीतकर्णी आसन, 78.शवासन,  
79.मयूरासन, 80.ब्रह्म मुद्रा, 81.पश्चिमोत्तनासन, 82.उष्ट्रासन, 83.वक्रासन, 84.अर्ध-मत्स्येन्द्रासन, 85.मत्स्यासन, 86.सुप्त-वज्रासन, 87.वज्रासन, 88.पद्मासन आदि।
6.जानिए क्या है:-
प्राणायाम के पंचक:- 1.व्यान, 2.समान, 3.अपान, 4.उदान और 5.प्राण।
प्राणायाम के प्रकार:- 1.पूरक, 2.कुम्भक और 3.रेचक। इसे ही हठयोगी अभ्यांतर वृत्ति, स्तम्भ वृत्ति और बाह्य वृत्ति कहते हैं। अर्थात श्वास को लेना, रोकना और छोड़ना। अंतर रोकने को आंतरिक कुम्भक और बाहर रोकने को बाह्म कुम्भक कहते हैं।
प्रमुख प्राणायाम:- 1.नाड़ीशोधन, 2.भ्रस्त्रिका, 3.उज्जाई, 4.भ्रामरी, 5.कपालभाती, 6.केवली, 7.कुंभक, 8.दीर्घ, 9.शीतकारी, 10.शीतली, 11.मूर्छा, 12.सूर्यभेदन, 13.चंद्रभेदन, 14.प्रणव, 15.अग्निसार, 16.उद्गीथ, 17.नासाग्र, 18.प्लावनी, 19.शितायु आदि।
अन्य प्राणायाम:- 1.अनुलोम-विलोम प्राणायाम, 2.अग्नि प्रदीप्त प्राणायाम, 3.अग्नि प्रसारण प्राणायाम, 4.एकांड स्तम्भ प्राणायाम, 5.सीत्कारी प्राणायाम, 6.सर्वद्वारबद्व प्राणायाम, 7.सर्वांग स्तम्भ प्राणायाम, 8.सम्त व्याहृति प्राणायाम, 9.चतुर्मुखी प्राणायाम, 10.प्रच्छर्दन प्राणायाम, 11.चन्द्रभेदन प्राणायाम, 12.यन्त्रगमन प्राणायाम, 13.वामरेचन प्राणायाम, 14.दक्षिण रेचन प्राणायाम, 15.शक्ति प्रयोग प्राणायाम, 16.त्रिबन्धरेचक प्राणायाम, 17.कपाल भाति प्राणायाम, 18.हृदय स्तम्भ प्राणायाम, 19.मध्य रेचन प्राणायाम, 20.त्रिबन्ध कुम्भक प्राणायाम, 21.ऊर्ध्वमुख भस्त्रिका प्राणायाम, 22.मुखपूरक कुम्भक प्राणायाम, 23.वायुवीय कुम्भक प्राणायाम, 24.वक्षस्थल रेचन प्राणायाम, 25.दीर्घ श्वास-प्रश्वास प्राणायाम, 26.प्राह्याभ्न्वर कुम्भक प्राणायाम, 27.षन्मुखी रेचन प्राणायाम 28.कण्ठ वातउदा पूरक प्राणायाम, 29.सुख प्रसारण पूरक कुम्भक प्राणायाम, 30.नाड़ी शोधन प्राणायाम व नाड़ी अवरोध प्राणायाम आदि।
7.योग क्रियाएं जानिएं:-
प्रमुख 13 क्रियाएं:- 1.नेती- सूत्र नेति, घॄत नेति, 2.धौति- वमन धौति, वस्त्र धौति, दण्ड धौति, 3.गजकरणी, 4.बस्ती- जल बस्ति, 5.कुंजर, 6.न्यौली, 7.त्राटक, 8.कपालभाति, 9.धौंकनी, 10.गणेश क्रिया, 11.बाधी, 12.लघु शंख प्रक्षालन और 13.शंख प्रक्षालयन।
8.मुद्राएं कई हैं:- 
*6 आसन मुद्राएं:- 1.व्रक्त मुद्रा, 2.अश्विनी मुद्रा, 3.महामुद्रा, 4.योग मुद्रा, 5.विपरीत करणी मुद्रा, 6.शोभवनी मुद्रा।
*पंच राजयोग मुद्राएं- 1.चाचरी, 2.खेचरी, 3.भोचरी, 4.अगोचरी, 5.उन्न्युनी मुद्रा।
*10 हस्त मुद्राएं:- उक्त के अलावा हस्त मुद्राओं में प्रमुख दस मुद्राओं का महत्व है जो निम्न है: -1.ज्ञान मुद्रा, 2.पृथवि मुद्रा, 3.वरुण मुद्रा, 4.वायु मुद्रा, 5.शून्य मुद्रा, 6.सूर्य मुद्रा, 7.प्राण मुद्रा, 8.लिंग मुद्रा, 9.अपान मुद्रा, 10.अपान वायु मुद्रा।
*अन्य मुद्राएं : 1.सुरभी मुद्रा, 2.ब्रह्ममुद्रा, 3.अभयमुद्रा, 4.भूमि मुद्रा, 5.भूमि स्पर्शमुद्रा, 6.धर्मचक्रमुद्रा, 7.वज्रमुद्रा, 8.वितर्कमुद्रा, 8.जनाना मुद्रा, 10.कर्णमुद्रा, 11.शरणागतमुद्रा, 12.ध्यान मुद्रा, 13.सुची मुद्रा, 14.ओम मुद्रा, 15.जनाना और चीन मुद्रा, 16.अंगुलियां मुद्रा 17.महात्रिक मुद्रा, 18.कुबेर मुद्रा, 19.चीन मुद्रा, 20.वरद मुद्रा, 21.मकर मुद्रा, 22.शंख मुद्रा, 23.रुद्र मुद्रा, 24.पुष्पपूत मुद्रा, 25.वज्र मुद्रा, 26श्वांस मुद्रा, 27.हास्य बुद्धा मुद्रा, 28.योग मुद्रा, 29.गणेश मुद्रा 30.डॉयनेमिक मुद्रा, 31.मातंगी मुद्रा, 32.गरुड़ मुद्रा, 33.कुंडलिनी मुद्रा, 34.शिव लिंग मुद्रा, 35.ब्रह्मा मुद्रा, 36.मुकुल मुद्रा, 37.महर्षि मुद्रा, 38.योनी मुद्रा, 39.पुशन मुद्रा, 40.कालेश्वर मुद्रा, 41.गूढ़ मुद्रा, 42.मेरुदंड मुद्रा, 43.हाकिनी मुद्रा, 45.कमल मुद्रा, 46.पाचन मुद्रा, 47.विषहरण मुद्रा या निर्विषिकरण मुद्रा, 48.आकाश मुद्रा, 49.हृदय मुद्रा, 50.जाल मुद्रा आदि।
9.प्रत्याहार: इंद्रियों को विषयों से हटाने का नाम ही प्रत्याहार है। इंद्रियां मनुष्य को बाहरी विषयों में उलझाए रखती है।। प्रत्याहार के अभ्यास से साधक अन्तर्मुखिता की स्थिति प्राप्त करता है। जैसे एक कछुआ अपने अंगों को समेट लेता है उसी प्रकार प्रत्याहरी मनुष्य की स्थिति होती है। यम नियम, आसान, प्राणायाम को साधने से प्रत्याहार की स्थिति घटित होने लगती है।
10.धारणा: चित्त को एक स्थान विशेष पर केंद्रित करना ही धारणा है। प्रत्याहार के सधने से धारणा स्वत: ही घटित होती है। धारणा धारण किया हुआ चित्त कैसी भी धारणा या कल्पना करता है, तो वैसे ही घटित होने लगता है। यदि ऐसे व्यक्ति किसी एक कागज को हाथ में लेकर यह सोचे की यह जल जाए तो ऐसा हो जाता है।
11.ध्यान: जब ध्येय वस्तु का चिंतन करते हुए चित्त तद्रूप हो जाता है तो उसे ध्यान कहते हैं। पूर्ण ध्यान की स्थिति में किसी अन्य वस्तु का ज्ञान अथवा उसकी स्मृति चित्त में प्रविष्ट नहीं होती।
ध्यान के रूढ़ प्रकार:- स्थूल ध्यान, ज्योतिर्ध्यान और सूक्ष्म ध्यान।
ध्यान विधियां:- श्वास ध्यान, साक्षी भाव, नासाग्र ध्यान, विपश्यना ध्यान आदि हजारों ध्यान विधियां हैं।
12.समाधि: यह चित्त की अवस्था है जिसमें चित्त ध्येय वस्तु के चिंतन में पूरी तरह लीन हो जाता है। योग दर्शन समाधि के द्वारा ही मोक्ष प्राप्ति को संभव मानता है।
समाधि की भी दो श्रेणियां हैं : 1.सम्प्रज्ञात और 2.असम्प्रज्ञात। सम्प्रज्ञात समाधि वितर्क, विचार, आनंद और अस्मितानुगत होती है। असम्प्रज्ञात में सात्विक, राजस और तामस सभी वृत्तियों का निरोध हो जाता है। इसे बौद्ध धर्म में संबोधि, जैन धर्म में केवल्य और हिन्दू धर्म में मोक्ष प्राप्त करना कहते हैं। इस सामान्य भाषा में मुक्ति कहते हैं।

पुराणों में मुक्ति के 6 प्रकार बताएं गए है जो इस प्रकार हैं- 1.साष्ट्रि, (ऐश्वर्य), 2.सालोक्य (लोक की प्राप्ति), 3.सारूप (ब्रह्मस्वरूप), 4.सामीप्य, (ब्रह्म के पास), 5.साम्य (ब्रह्म जैसी समानता) 6.लीनता या सायुज्य (ब्रह्म में लीन होकर ब्रह्म हो जाना)।
*योगाभ्यास की बाधाएं: आहार, प्रयास, प्रजल्प, नियमाग्रह, जनसंग और लौल्य। इसी को सामान्य भाषा में आहार अर्थात अतिभोजन, प्रयास अर्थात आसनों के साथ जोर-जबरदस्ती, प्रजल्प अर्थात अभ्यास का दिखावा, नियामाग्रह अर्थात योग करने के कड़े नियम बनाना, जनसंग अर्थात अधिक जनसंपर्क और अंत में लौल्य का मतलब शारीरिक और मानसिक चंचलता।
1.राजयोग:- यम, नियम, आसन, प्राणायम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि यह पतंजलि के राजयोग के आठ अंग हैं। इन्हें भी कहा जाता है।
2.हठयोग:- षट्कर्म, आसन, मुद्रा, प्रत्याहार, ध्यान और समाधि- ये के सात अंग है, लेकिन हठयोगी का जोर आसन एवं कुंडलिनी जागृति के लिए आसन, बंध, मुद्रा और प्राणायम पर अधिक रहता है। यही क्रिया योग है।
3.लययोग:- यम, नियम, स्थूल क्रिया, सूक्ष्म क्रिया, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। उक्त आठ लययोग के अंग है।
4.ज्ञानयोग :- साक्षीभाव द्वारा विशुद्ध आत्मा का ज्ञान प्राप्त करना ही ज्ञान योग है। यही ध्यानयोग है।
5.कर्मयोग:- कर्म करना ही कर्म योग है। इसका उद्‍येश्य है कर्मों में कुशलता लाना। यही सहज योग है।
6.भक्तियोग :- भक्त श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन रूप- इन नौ अंगों को नवधा भक्ति कहा जाता है। भक्ति योगानुसार व्यक्ति सालोक्य, सामीप्य, सारूप तथा सायुज्य-मुक्ति को प्राप्त होता है, जिसे क्रमबद्ध मुक्ति कहा जाता है।
*कुंडलिनी योग : कुंडलिनी शक्ति सुषुम्ना नाड़ी में नाभि के निचले हिस्से में सोई हुई अवस्था में रहती है, जो ध्यान के गहराने के साथ ही सभी चक्रों से गुजरती हुई सहस्रार चक्र तक पहुंचती है। ये चक्र 7 होते हैं:- मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा और सहस्रार। 72 हजार नाड़ियों में से प्रमुख रूप से तीन है: इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना। इड़ा और पिंगला नासिका के दोनों छिद्रों से जुड़ी है जबकि सुषुम्ना भ्रकुटी के बीच के स्थान से। स्वरयोग इड़ा और पिंगला के विषय में विस्तृत जानकारी देते हुए स्वरों को परिवर्तित करने, रोग दूर करने, सिद्धि प्राप्त करने और भविष्यवाणी करने जैसी शक्तियाँ प्राप्त करने के विषय में गहन मार्गदर्शन होता है। दोनों नासिका से सांस चलने का अर्थ है कि उस समय सुषुम्ना क्रियाशील है। ध्यान, प्रार्थना, जप, चिंतन और उत्कृष्ट कार्य करने के लिए यही समय सर्वश्रेष्ठ होता है।
योग का संक्षिप्त इतिहास (History of Yoga) : योग का उपदेश सर्वप्रथम हिरण्यगर्भ ब्रह्मा ने सनकादिकों को, पश्चात विवस्वान (सूर्य) को दिया। बाद में यह दो शखाओं में विभक्त हो गया। एक ब्रह्मयोग और दूसरा कर्मयोग। ब्रह्मयोग की परम्परा सनक, सनन्दन, सनातन, कपिल, आसुर‍ि, वोढु और पच्चंशिख नारद-शुकादिकों ने शुरू की थी। यह ब्रह्मयोग लोगों के बीच में ज्ञान, अध्यात्म और सांख्‍य योग नाम से प्रसिद्ध हुआ।
दूसरी कर्मयोग की परम्परा विवस्वान की है। विवस्वान ने मनु को, मनु ने इक्ष्वाकु को, इक्ष्वाकु ने राजर्षियों एवं प्रजाओं को योग का उपदेश दिया। उक्त सभी बातों का वेद और पुराणों में उल्लेख मिलता है। वेद को संसार की प्रथम पुस्तक माना जाता है जिसका उत्पत्ति काल लगभग 10000 वर्ष पूर्व का माना जाता है। पुरातत्ववेत्ताओं अनुसार योग की उत्पत्ति 5000 ई.पू. में हुई। गुरु-शिष्य परम्परा के द्वारा योग का ज्ञान परम्परागत तौर पर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को मिलता रहा।
भारतीय योग जानकारों के अनुसार योग की उत्पत्ति भारत में लगभग 5000 वर्ष से भी अधिक समय पहले हुई थी। योग की सबसे आश्चर्यजनक खोज 1920 के शुरुआत में हुई। 1920 में पुरातत्व वैज्ञानिकों ने 'सिंधु सरस्वती सभ्यता' को खोजा था जिसमें प्राचीन हिंदू धर्म और योग की परंपरा होने के सबूत मिलते हैं। सिंधु घाटी सभ्यता को 3300-1700 बी.सी.ई. पूराना माना जाता है।
योग ग्रंथ (Yoga Sutras Books) : वेद, उपनिषद्, भगवद गीता, हठ योग प्रदीपिका, योग दर्शन, शिव संहिता और विभिन्न तंत्र ग्रंथों में योग विद्या का उल्लेख मिलता है। सभी को आधार बनाकर पतंजलि ने योग सूत्र लिखा। योग पर लिखा गया सर्वप्रथम सुव्यव्यवस्थित ग्रंथ है- योगसूत्र। योगसूत्र को पांतजलि ने 200 ई.पूर्व लिखा था। इस ग्रंथ पर अब तक हजारों भाष्य लिखे गए हैं, लेकिन कुछ खास भाष्यों का यहां उल्लेख लिखते हैं।
व्यास भाष्य: व्यास भाष्य का रचना काल 200-400 ईसा पूर्व का माना जाता है। महर्षि पतंजलि का ग्रंथ योग सूत्र योग की सभी विद्याओं का ठीक-ठीक संग्रह माना जाता है। इसी रचना पर व्यासजी के 'व्यास भाष्य' को योग सूत्र पर लिखा प्रथम प्रामाणिक भाष्य माना जाता है। व्यास द्वारा महर्षि पतंजलि के योग सूत्र पर दी गई विस्तृत लेकिन सुव्यवस्थित व्याख्या।
तत्त्ववैशारदी : पतंजलि योगसूत्र के व्यास भाष्य के प्रामाणिक व्याख्याकार के रूप में वाचस्पति मिश्र का 'तत्त्ववैशारदी' प्रमुख ग्रंथ माना जाता है। वाचस्पति मिश्र ने योगसूत्र एवं व्यास भाष्य दोनों पर ही अपनी व्याख्या दी है। तत्त्ववैशारदी का रचना काल 841 ईसा पश्चात माना जाता है।
योगवार्तिक : विज्ञानभिक्षु का समय विद्वानों के द्वारा 16वीं शताब्दी के मध्य में माना जाता है। योगसूत्र पर महत्वपूर्ण व्याख्या विज्ञानभिक्षु की प्राप्त होती है जिसका नाम ‘योगवार्तिक’ है। 
भोजवृत्ति : भोज के राज्य का समय 1075-1110 विक्रम संवत माना जाता है। धरेश्वर भोज के नाम से प्रसिद्ध व्यक्ति ने योग सूत्र पर जो 'भोजवृत्ति नामक ग्रंथ लिखा है वह भोजवृत्ति योगविद्वजनों के बीच समादरणीय एवं प्रसिद्ध माना जाता है। कुछ इतिहासकार इसे 16वीं सदी का ग्रंथ मानते हैं।

पादहस्तासन से कमर और पेट को मिलेगा एक साथ फायदा

स आसन मे हम दोनों हाथों से अपने पैर के अँगूठे को पकड़ते हैं, पैर के टखने भी पकड़े जाते हैं। चूँकि हाथों से पैरों को पकड़कर यह आसन किया जाता है इसलिए इसे कहा जाता है। यह आसन खड़े होकर किया जाता है।

‍‍विधि : यह आसन खड़े होकर किया जाता है। पहले कंधे और रीढ़ की हड्डी को सीधा रखते हुए सावधान की मुद्रा में खड़े हो जाएँ। फिर दोनों हाथों को धीरे-धीरे ऊपर उठाया जाता है। हाथों को कंधे की सीध में लाकर थोड़ा-थोड़ा कंधों को आगे की ओर प्रेस करते हुए फिर हाथों को सिर के ऊपर तक उठाया जाता है। ध्यान रखें की कंधे कानों से सटे हुए हों। 

तत्पश्चात हाथ की हथेलियों को सामने की ओर किया जाता है। जब बाँहें एक-दूसरे के समानान्तर ऊपर उठ जाएँ तब धीरे-धीरे कमर को सीधा रख श्वास भीतर ले जाते हुए नीचे की ओर झुकना प्रारम्भ किया जाता है। झुकते समय ध्यान रखे की कंधे कानों से सटे ही रहें।

तब घुटने सीधे रखते फिर हाथ की दोनों हथेलियों से एड़ी-पंजे मिले दोनों पाँव को टखने के पास से कस के पकड़कर माथे को घुटने से स्पर्श करने का प्रयास किया जाता है। इस स्थिति में श्वास लेते रहिए। इस स्थिति को सूर्य नमस्कार की तीसरी स्थिति भी कहा जाता है। सुविधा अनुसार 30-40 सेकंड इस स्थिति में रहें।

वापस आने के लिए धीरे-धीरे इस स्थिति से ऊपर उठिए और क्रमश: खड़ी मुद्रा में आकर हाथों को पुन: कमर से सटाने के बाद विश्राम की स्थिति में आ जाइए। कुछ क्षणों का विराम देकर यह अभ्यास पुन: कीजिए। इस तरह 5 से 7 बार करने पर यह आसन असरकारक होता है।

सावधा‍‍नी : रीढ़ की हड्डी में कोई शिकायत हो तथा साथ ही पेट में कोई गंभीर बीमारी हो ऐसी स्थिति में यह आसन न करें।

इसके लाभ : यह आसन मूत्र-प्रणाली, गर्भाशय तथा जननेन्द्रिय स्रावों के लिए विशेष रूप से अच्‍छा होता है। इससे कब्ज की शिकायत भी दूर होती है। यह पीठ और रीढ़ की हड्डी को मजबूत और लचीला बनाता है तथा जंघाओं और पिंडलियों की माँसपेशियों को मजबूत करता है। आँतों के व पेट के प्राय: समस्त विकार इस आसन को नियमित करने से दूर होते हैं। इससे सुषुम्ना नाड़ी का खिंचाव होने से उनका बल बढ़ता है।

हस्त उत्तानासन से दूर करे कमर, पीठ दर्द

हस्त उत्तानासन करते समय तीन बातों का ध्यान रखना चाहिए. शरीर को खींचना और ढीला छोड़ना. साँस की गति को लयबद्ध करना और सजगता को अंतर्मन से देखना.
जिन्हें श्याटिका या स्लिप डिस्क की शिकायत है, वे खड़े होने वाले दो आसनों का ही अभ्यास करें. हस्त उत्तानासन और ताड़ासन. हस्त उत्तासन कमर और पीठ के दर्द और तनाव को दूर करता है.

हस्त उत्तानासन की विधि
दोनों पैर मिलाकर खड़े हो जाएं. दोनों हाथों को सामने की ओर कलाई से क्रास कर लें. यह प्रारंभिक स्थिति है. सांस भरते हुए दोनों हाथों को एक साथ सिर के ऊपर लाएँ. गर्दन को पीछे की ओर मोड़कर हथेलियों की ओर देखें. हाथों को क्रास ही रखें.
सांस छोड़ते हुए दोनों बाजुओं को कंधों की सीध में लाएँ. साँस भरते हुए हाथों को फिर से सिर के ऊपर लेकर आएँ और हथेलियों को क्रास कर लें.
साँस छोड़ते हुए हाथों को सामने की ओर नीचे लाएँ और गर्दन भी सीधी कर लें. ये अभ्यास 5-10 बार दोहरा सकते हैं.

लाभ
जिनके कंधे सीधे नहीं है और सामने से गोल दिखते हों, उन्हें हस्त उत्तानासन का अभ्यास ज़रूर करना चाहिए. इससे कंधे सुडौल होंगे. साथ ही कंधे और पीठ की जकड़न भी दूर हो जाएगी.
इस आसन के दौरान हम गहरी, लंबी साँस भरते हैं, जिससे फेफड़ों की क्षमता बढ़ती है और छाती का विकास होता है.
इसके अभ्यास से हृदय का स्वास्थ्य बरकरार रहता है. पूरा शरीर, फेफड़े, मस्तिष्क अधिक मात्रा में ऑक्सीजन प्राप्त करते हैं.

शीतकारी प्राणायाम
प्राणायाम का नियंत्रणपूर्वक विस्तार करना बहुत ज़रूरी है. ये जान लेना भी ज़रूरी है कि जो प्राणायाम आपने चुना है वो आपकी प्रकृति के अनुरूप हो. शीतकारी प्राणायाम शीतलता प्रदान करता है.
इसलिए यदि आपको कफ की शिकायत रहती है तो शीतकारी प्राणायाम का अभ्यास करें.
शीतकारी प्राणायाम उच्च रक्तचाप को नियंत्रित करने में मदद करता है और भावनात्मक संतुलन भी प्रदान करता है.

विधि
किसी भी ध्यानात्मक आसन में बैठिए. आँखें बंद कर लें और पूरे शरीर को शिथिल और शांत कर लें. ऊपर और नीचे के दांतों की पक्तियों को मिलाएँ. जीभ को पलटकर तालु से लगा लीजिए.
होंठ खोलिए ताकि दंत पक्तियां दिखाई दें. मुंह से भी साँस भरिए ताकि हवा आपके दांतों के बीच से होते हुए जाए. साँस भरने की आवाज़ आपको सुनाई देगी और मुँह, होंठ, दांतों में ठंडक महसूस होगी.
साँस भरने के बाद मुँह बंद कर लें और नाक से साँस को नियंत्रणपूर्वक धीरे-धीरे बाहर निकाल दें. ये अभ्यास पाँच से 10 बार दोहराएँ.
मुंह से साँस भरने से यदि दांतों को अधिक ठंडक महसूस हो, दांतों में तकलीफ हो तो उन्हें शीतकारी प्राणायाम के स्थान पर शीतली प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए.
सर्दी-खाँसी, कफ, दमा या जोड़ों में दर्द की शिकायत वाले व्यक्तियों को शीतकारी प्राणायम नहीं करना चाहिए. शीतकारी प्राणायाम का प्रभाव ठंडा होता है, इसलिए इसका अभ्यास सर्दियों में नहीं करना चाहिए.
शीतकारी प्राणायाम शरीर की गर्मी को कम करता है. इसलिए गर्मियों में इसका अभ्यास लाभकारी है. उच्च रक्तचाप नियंत्रित होता है, मन शांत होता है और तनाव से मुक्ति मिलती है.

मधुमेह मुक्त भारत अभियान योग

1-     प्रारम्भिक प्रार्थना 
ॐ सह नाववतु ।   सह नौ भुनक्तु ।     सहवीर्यं करवावहै ।   तेजस्वि नावधीतमस्तु ।  मा विद्विषावहै ।।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।।


अर्थ :- हे प्रभु ! हम (गुरु और शिष्य ) दोनों की  एक साथ हर प्रकार से रक्षा करे , हम दोनों का पालन पोषण करे।  हम दोनों में एक साथ कार्य करने की शक्ति प्रदान करे।  हम दोनों की अध्ययन की हुई विद्या तेजपूर्ण हो हम किसी से विद्या में परास्त न हो।  हम दोनों में एक दूसरे के प्रति जीवन भर स्नेह बना रहे।  हम कभी भी किसी भी समय एक दूसरे से घृणा न करे।  आदि दैविक, आदि भौतिक तथा आदि आध्यात्मिक तीनो प्रकार के तापो से हमे शांति मिले।  


1-     सूर्य नमस्कार मंत्र
हिरण्यमयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।  तत्त्वं पुषन्नपावृणु सत्य धर्माय दृष्टये।।

अर्थ :- (सत्य का मुख सोने के पात्र (निहित स्वार्थ) के ढक्कन से ढका हुआ है. हे सूर्य देवता तुम उसे हटा दो तकि हम यह जान सकें कि सत्य और और धर्म क्या हैं. दूसर शब्दों में निहित स्वार्थ यथार्थ बोध के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा हैं. इस छन्द से विदित होता है कि वैदिक युग में भी धार्मिक परंपराओं में घुस आये अंधविश्वासों को दूर कर सच को सामने लाने वाले मनीषियों को निहित स्वार्थों का घोर विरोध का सामना करना पड़ता होगा।

12 सूर्य नमस्कार मंत्र

1-  ओउम ह्रां मित्राय नमः
2-  ओउम ह्रीं रवये नमः
3-  ओउम ह्रुं सूर्याय नमः
4-  ओउम  ह्रैं भानवे नमः
5-  ओउम ह्रौं खगय नमः
6-  ओउम ह्रः पूष्णे नमः
7-  ओउम ह्रां हिरण्यगर्भाय नमः
8-  ओउम ह्रीं मरिचाय नमः
9-  ओउम ह्रुं आदित्याय नमः
10-    ओउम  ह्रैं सावित्रे नमः
11-    ओउम ह्रौं अर्काय नमः
12-    ओउम ह्रः भास्कराय नमः




2-     प्राणायाम 

1-     प्रारम्भिक प्रार्थना :-
प्राणस्येदं वशे सर्वं त्रिदिवे यत्प्रतिष्ठितं |
मातेव पुत्रान् रक्षस्व श्रीश्च प्रज्ञां च विधेहि न इति ||
                                                                                                   (प्रश्नोपनिषद, 2 / 13)

सभी जगह प्राण वसा हुआ है।  तीनो देवो में भी वही विराजमान है।  हे प्राण मेरी उसी प्रकार से रक्षा कर जिस प्रकार एक मत अपने पुत्र की रक्षा करती है।  हममे कार्य कार्नर की क्षमता (कांति) और ज्ञान (प्रज्ञा) प्रदान करे।  

2-     कपाल भाति :-
एक मिनट में ३० बार।
पहले धीरे - धीरे कपालभाति का अभ्यास करेंगे फिर उसके बाद धीरे - धीरे बढ़ाते जायेंगे और अंत में अभयास को अचानक बंद करने के बाद ऐसा महसूस करेंगे की कुछ क्षण के लिए सहज कुम्भक लग गया है यानि स्वास का आना जाना बंद हो गया है।  इस अवस्था में अपने मन के अंदर अनन्त नील आकाश की भांति चारो तरफ शांति ही शांति तथा आनंद ही आनंद परमानन्द की अनुभूति करे।  इस परम आनंद और परम शांति की अवस्था को थोड़ी देर बनाए रखे।

इसका लाभ

इस प्राणायाम के नियमित अभ्यास से शरीर की अनावश्यक चर्बी घटती है। हाजमा ठीक रहता है। भविष्य में कफ से संबंधित रोग व साँस के रोग नहीं होते। प्राय: दिन भर सक्रियता बनी रहती है। रात को नींद भी अच्छी आती है।

3-      नाड़ी शुद्धि :-
नाड़ी  शुद्धि करने से हमारे शुक्ष्म शारीर की ७२ लाख नाड़ियाँ शुद्ध होती है।  इस प्राणायाम करने से पहले अपने बाएं हाथ की चिन मुद्रा तथा दाएं हाथ की नासिका मुद्रा बनायें।  दाएं अंगूठे से दाएं नासिका को दबाकर बाएं नासिका से स्वांस को बाहर निकाले।  फिर धीरे - धीरे बाएं नासिका से स्वांस अंदर ले और बाएं नासिका को दबाकर पूरी  स्वांस को दाएं नासिका से बाहर निकले।  फिर दाएं नासिका से श्वांस अंदर लेकर पूरी श्वांस को बाएं नासिका से धीरे - धीरे अंदर ले।  यह एक बार नाड़ी  शुद्धि हुआ।  इसमें श्वांस इतना धीरे - धीरे लेना व् छोड़ना चाहिए कि आवाज अपने आप को ही न सुनाई पड़े।  ऐसे ५ , ९  या २७ बार नाड़ी  शुद्धि जैसा समय हो उसके अनुसार करे।  यह प्राणायाम सभी रोगों में लाभदायक है। 

इसका लाभ : इससे सभी प्रकार की नाड़ियों को स्वस्थ लाभ मिलता है साथ ही नेत्र ज्योति बढ़ती है और रक्त संचालन सही रहता है। अनिद्रा रोग में लाभ मिलता है। यह तनाव घटाकर मस्तिष्क को शांत रखता है तथा व्यक्ति में सकारात्मक ऊर्जा का विकास करता है।

4-     भ्रामरी 

जीभ को तालू  से स्पर्श करने के बाद मुख बंद कर नासिका से श्वांस बाहर निकलते हुए '' कार उच्चारण लम्बे समय तक करेंगे।  लम्बा व् गहरा श्वांस ले।  
न................................................................................................... एक बार भ्रामरी हुआ।  ऐसे ही ९ बार और करे।

इसका लाभ-  इसके अलावा यदि किसी योग शिक्षक से इसकी प्रक्रिया ठीक से सीखकर करते हैं तो इससे हृदय और फेफड़े सशक्त बनते हैं। उच्च-रक्तचाप सामान्य होता है। हकलाहट तथा तुतलाहट भी इसके नियमित अभ्यास से दूर होती है। योगाचार्यों अनुसार पर्किन्सन, लकवा, इत्यादि स्नायुओं से संबंधी सभी रोगों में भी लाभ पाया जा सकता है।


3-     आवर्तन ध्यान (साइक्लिक मेडिटेशन )

लये संबोधयेत  चित्तं विक्षित्तम् शमएत पुनः।
सकषायम विजानियात सम्प्राप्तम् न चालयेत।।
-         मांडूक्य उपनिषद ३. ४४ 

प्रार्थना से उत्त्पन्न कम्पन्न को शारीर में महसूस करे। 
इस श्लोक का तात्पर्य यह कि जब हमारा मन अधिक शिथिल और  ढीला पड़ जाए तो उसे जगाइए और जब मन अधिक तीब्र गति से  इधर उधर विक्षिप्त की भांति भाग रहा  हो तो उसे शांत करने का प्रयास करे ऐसा प्रयास करे कि दोनों ही स्थितियों से  एक सम स्थिति में आ जाए।  और पुनः मन सम स्थिति से चंचल न हो। 

4-     शांति मंत्र
ओम सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्।।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।।

इसका तात्पर्य यह है कि सभी लोग सुखी हो , सभी लोग बिमारियों से मुक्त हो।  सभी लोग अच्छा और शुभ ही देखे।  किसी को किसी प्रकार का कोई दुःख न हो।  यदि दुःख हो जाय तो वह जल्द ही दूर हो जाय।  सभी को आदि दैविक, आदि भौतिक, आदि आध्यात्मिक दुःखो से शांति व् मुक्ति मिले। 
                                                                                       

साप्ताहिक योगाभ्यास
नाम
स्थिति
अभ्यास
श्वसन अभ्यास
ताड़ासन (खड़े होकर)
हैंड इन एंड आउट श्वसन अभ्यास
शिथिलीकरण अभ्यास (5 मिनट )
ताड़ासन (खड़े होकर)
हस्तउत्तानासन - पादहस्तासन
अश्वसंचालनासन अभ्यास
PRONE (पेट के बल लेटकर)
भुजंगासन - पर्वतासन
सुखासन या वज्रासन में बैठकर अ, , म का जाप
सूर्यनमस्कार
(बीज मंत्र  के साथ)
1- ओउम ह्रां मित्राय नमः
2-
ओउम ह्रीं रवये नमः
3-
ओउम ह्रुं सूर्याय नमः
4-
ओउम  ह्रैं भानवे नमः
5-
ओउम ह्रौं खगय नमः
6-
ओउम ह्रः पूष्णे नमः
7-
ओउम ह्रां हिरण्यगर्भाय नमः
8-
ओउम ह्रीं मरिचाय नमः
9-
ओउम ह्रुं आदित्याय नमः
10-
ओउम  ह्रैं सावित्रे नमः
11-
ओउम ह्रौं अर्काय नमः
12-
ओउम ह्रः भास्कराय नमः
1- हस्तउत्तानासन
2- पादहस्तासन
3- अश्वसंचालनासन
4- तुलासन
5- शशांकासन
6- षाष्टांग प्रणिपादहस्तासन
7- भुजंगासन
8- पर्वतासन
9- शशांकासन
10- अश्वसंचालनासन
11- पादहस्तासन
12- हस्तउत्तानासन
रिलेक्सेशन तकनिकी
क्वीक रिलेक्सेशन तकनिकी (क्यू आर टी )
आसन 
वक्रासन
प्राणायाम
कपालभांति , नाड़ी शुद्धि
भ्रामरी
एडवांस तकनिकी
आवर्त ध्यान (सी एम 30 मिनट )